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पचनन्दिपञ्चविंशतिका । ग्दर्शन आदिकी प्राप्तिसे वे ममुष्य कृतकृत्य होजाते हैं अर्थात् उनको संसारमें कोईभी काम करनेकेलिये वांकी नहीं रहता इसलिये जो मनुष्य कृतकृत्य होना चाहते हैं उनको अवश्यही सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक् चारित्रकी प्राप्ति करनी चाहिये ॥ १३ ॥ अव आचार्यवर सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्रके स्वरूपको कहते हैं।
अग्नाविवोष्णभावः सम्यग्बोधेऽस्ति दर्शनं शुद्धम् ।
ज्ञातं प्रतीतमाभ्यां सत्स्वास्थ्यं भवति चारित्रम् ॥ १४ ॥ अर्थः-जिसप्रकार अग्निमें उष्णता है उसीप्रकारसे जो आत्मामें ज्ञान हैं इसप्रकारकी जो दृढ़ प्रतीति है इसका नामतो सम्यग्दर्शन है और आत्माका जो भलीभांति ज्ञान है उसको निश्चयज्ञान कहते हैं तथा सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सहित जो आत्मा उस आत्मामें समर्माचीन जो स्वस्थता उसको चारित्र कहते हैं।
भावार्थ:--आत्मामें निश्चलरीतिस जो श्रद्धान है उसकोतो सम्यग्दर्शन कहते हैं और इसी भात्माका जो ज्ञान है वह सम्यग्ज्ञान है और आत्मामें जो स्थिति है उसको चारित्र कहते हैं ।। १४ ॥ अब आचार्य सम्यग्दर्शन आदिकी सफलताका वर्णन करते हैं।
विहिताभ्यासा बहिरर्थवेध्यसंवन्धतो दृगादिशराः ।
सफलाः शुद्धात्मरणे छिन्दितकर्मारिसंघाताः ॥ १५ ॥ अर्थः-बाह्य जो पदार्थ वेही हुई वेध्य “निशान” उनके संवन्धस कियागया है अभ्यास जिनका ऐसे जो सम्यग्दर्शन आदिक वांण हैं वे शुद्धात्मारूपी संग्राममें समस्त कर्मरूपी वैरियोंको नाशकर सफलहोते हैं।
१ कः पुस्नक में “वहिर सन्धिना " यह मी पाहै।
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