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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥३०३ 60000०००००००००००००००००००००००64600000000०००००००००००००००० पअनन्दिपञ्चविंशतिका । आत्मनि निश्चयबोधस्थितयो रत्नत्रयं भवक्षतये । भूतार्थपथपस्थितबुद्धरात्मैव तत्रितयम ॥ १२॥ अर्थः-आत्मामें जो निक्षय बोध स्थितिरूप रत्नत्रय है अर्थात् सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यकचारित्ररूप रत्नत्रय है वह संसारके नाशकेलिये होती है और वह रत्नत्रय कोई जुदा पदार्थ नहीं है किन्तु जिन भव्यजीवोंकी बुद्धि भूतार्थमार्गमें स्थित है अर्थात् शुद्धनिश्वयनयको आश्रय करनेवाली है उन भव्यजीवोंकी आत्माही सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र स्वरूप जो रत्नत्रय उसरत्नत्रय स्वरूप है। भावार्थः--जो भव्यजीव सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक् चारित्र स्वरूप जो रत्नत्रय उसरत्नत्रयस्वरूप जो आत्मा उस आत्माका ध्यान करते हैं वे समस्त दुःखोंसे छूट जाते हैं और सीधे मुक्तिको जाते हैं इसलिये मोक्षाभिलाषियोंको अवश्यही रत्नत्रयस्वरूपआत्माका आराधन करना चाहिये ॥ १२ ॥ सम्यग्दर्शनादिरत्नत्रय आत्माका अखंडरूप है इसवातको आचार्य बतलाते हैं । सम्यकसुखबोधदृशां त्रितयमखण्डं परात्मनोरूपम् । तत्तत्र तत्परो यः सएव तल्लब्धिकृतकृत्यः ॥ १३॥ अर्थः--सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र ये तीनों आत्माके अखंडरूप हैं इसलिये आचार्य कहकहते हैं कि जो पुरुष परमात्मामें लीन हैं अर्थात् परमात्माके आराधक हैं उनको सम्यग्दर्शन आदिकी प्राप्ति होती है और वे कृतकृत्य होजाते हैं। भावार्थः-जो मनुष्य आत्माके अराधन करनेवाले हैं उनको सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्रकी प्राप्ति होती है क्योंकि सम्यग्दर्शन आदिक आत्मासे भिन्न नहीं हैं आत्माकेही अखंड स्वरूप हैं और सम्य 10000000000०००००००००००००००००..........04.00000000000र ३०३॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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