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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ...10000०००००००००००००००००००००००००......००००००००००००००० www.kobatirth.org पचनन्दिपश्चविंशतिका । शस्त्रं जन्मतरुच्छेदि तदेवकं सतां मतम् । योगिनां योगिनिष्ठानां तदेवैकं प्रयोजनम् ॥ ४५ ॥ अर्थः-और वही चैतन्यस्वरूपीआत्मा जन्मरूपीवृक्षके नाशकरनेकेलिये शस्त्रके समान है अर्थात् चैतन्यस्वरूप आत्माके भलीभांति ध्यानके करनेसे सर्व जन्म मरण आदि नष्ट होजाते हैं तथा वही आत्मारूपी | तेज भव्यजीवांका मान्य है और वही ध्यानयुक्तयोगियोंका प्रयोजन है अर्थात् उसीकी प्राप्तिके लिये योगिगण सदा प्रयत्न करते रहते हैं ॥ ४५ ॥ मुमुक्षूणां तदेवैकं मुक्तः पन्था न चापरः । आनन्दोऽपि न चान्यत्र तदिहाय विभाव्यते ॥४६॥ अर्थः-मोक्षाभिलाषियोंकेलिये चैतन्यस्वरूप आत्माही मोक्षका मार्ग है आत्मासे अन्य कोई भी मोक्ष मार्ग नहीं है तथा आनंद भी आत्मामें ही है किन्तु उसके सिवाय और कहींपर भी आनन्द नहीं प्रतीत होता इसलिये भव्यजीवोंको इसीका ध्यान करना चाहिये ॥ ४६ ॥ संसारघोरघर्मेण सदा तप्तस्य देहिनः। यन्त्रधारागृहं शान्तं तदेव हिमशीतलम ॥४७॥ अर्थः--संसाररूपीप्रवलतापसे निरंतर संतप्तप्राणियोंको वह चैतन्यस्वरूपआत्माही शांत तथा वरफके समान ठंढा, फवारासहित मकान है, अर्थात् जिसप्रकार धूपसे संतप्तमनुष्योंको फवारासहित शीतल मकानमें आराम मिलता है उसीप्रकार संसारके संतापसे खिन्नजीवोंको इसशांतआत्मामें लीन होनसेही आराम मिलता है इसलिये भव्यजीवोंको सदा चैतन्यस्वरूपआत्माकाही अनुभव करना चाहिये ॥४७॥ 000000000000000000000000000000000000000000००००००००००००० For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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