________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
0000000000000000000000000०००००००००००००००००००००००००००००...
पमनन्दिपश्चविंशत्तिका ।
स्वाध्यायस्तु तदेवेकमप्रमत्तस्य योगिनः ॥४१॥ अर्थः-प्रमादरहित योगीश्वरोंका जो चिदानन्दस्वरूप आत्माका ध्यान है वही तो आचार है तथा वही आवश्यकक्रिया है तथा वही स्वाध्याय है किन्तु उससे भिन्न आचार आदि कोई वस्तु नहीं है ॥ ११ ॥
गुणशीलानि सर्वाणि धर्मश्चात्यन्तनिर्मलः । गुणशा
सम्भाव्यते परं ज्योतिस्तदेकमनुतिष्ठतः ॥ ४२ ॥ अर्थः-जो पुरुष उसचैतन्यस्वरूपआत्माका ध्यान करनेवाला है वही पुरुष चौरासीलाख उत्तरगुणों का धारी है तथा वही अठारहहजार शीलवताका धारी है और उसीपुरुषके निर्मलधर्म है ऐसा निश्चय है ॥४२॥
तदेवकं परं रत्नं सर्वशास्त्रमहोदधेः।
रमणीयेषु सर्वेषु तदेकं पुरतः स्थितम् ॥ ४३ ॥ अर्थः-समस्तशास्त्ररूपाविस्तीर्णसमुद्रका उत्कृष्टरत्न यह चैतन्यस्वरूप आत्माही है अर्थात इसी रत्नकी प्राप्तिकोलिये शास्त्रोंका अध्ययन कियाजाता है तथा संसार में जितनेभर मनोहरपदार्थ हैं उन सबपदार्थों में मनोहर तथा उत्कृष्ट पदार्थ यह चैतन्यस्वरूप आत्माही है इसलिये भव्यजीवोंको इस चैतन्यस्वरूपआत्मा का ही अच्छीतरहसे ध्यान करना चाहिये ॥ ४३ ॥
तदेवैकं परं तत्वं तदेवैकं परं पदम् ।
भव्याराध्यं तदेवेकं तदेवैकं परं महः ॥ ४४ ॥ अर्थ:--वह चैतन्यस्वरूप आत्माही एक उत्तमतत्व है तथा वही एक उत्कृष्ट स्थान है और वही एक भव्यजीवोंके आराधन करने योग्य है तथा वही एक अद्वितीय उत्तमतेज है ॥४४॥
0000000000000.00...+++++HAR
0
१७६॥
For Private And Personal