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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पचनन्दिपञ्चविंशतिका । संसार संकटमें फसेहुवे प्राणियोंका उहारकरनेवाला धर्म है किन्तु स्वार्थीदुष्टोंने उसको विपरीत ही करदिया है अर्थात् उनका मानाहुवा धर्मका स्वरूप संसारमें केवल डुवाने वाला ही है इसलिये भव्यजीवों को चाहिये कि वे भलीभांति परीक्षाकर धर्मको ग्रहण करें ॥ ९॥ कौंन धर्म प्रमाणकरनेयोग्य है इसवातको आचार्य दिखाते हैं। सर्वबिद्धीतरागोक्तो धर्मः सूनृततां ब्रजेत् । प्रामाण्यतो यतः पुन्सो वाचः प्रामाण्यमिष्यते ॥१०॥ समस्त लोकालोकके पदार्थोके जाननेवाले तथा वीतरागीमनुष्यका कहा हुवा ही धर्म प्रमाणीक होता है क्योंकि मनुष्यके प्रामाण्यसे ही वचनोंमें प्रमाणता समझी जाती है इसलिये जब बीतराग तथा सर्वज्ञ प्रमाणीक पुरुष हैं तव उनका कहाहुवा धर्मभी प्रमाणीक ही है ऐसा समझना चाहिये ॥ १० ॥ बहिर्विषयसबन्धः सर्वः सर्वस्य सर्वदा।। अतस्तद्भिन्नचैतन्यबोधयोगौ तु दुर्लभौ ॥ ११ ॥ . अर्थः-समस्तबाह्यविषयोंका संबंध तो सबजीवोंके सदाकालही रहता है किन्तु वाह्य पदार्थों के संबंध से जुदा जो ज्ञानानन्द स्वरूप चैतन्यका ज्ञान तथा संबंध है वह अत्यंत दुर्लभ है । भावार्थ:--अनादिकालसे बाह्यपदार्थोंका संवंधतो जीवों के प्रतिक्षण लगा आया है इसलिये उसकातो सर्वजीवोंको अनुभव है परन्तु उसबाह्यसंबंधसे भिन्न अंतरंगमें चैतन्यका ज्ञान तथा उसका संबंध कभी | नहीं हुवा है क्योंकि वह अत्यंत दुर्लभ है इसलिये भव्यजीवोंको चैतन्यकाही ज्ञान करना चाहिये तथा उसी. का अनुभव करना चाहिये॥ ११ ॥ Pop०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००..." १६६॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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