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पचनन्दिपञ्चविंशतिका । समग्रस्वरूपको कोई भी वर्णन नहीं करसका इसलिये उनकी वे सर्ववातें मिथ्याही समझीगई हो यदि वे इस प्रकारका एकान्त नहीं पकड़ते कि हाथी लंवाहीं होता है अथवा गोल ही होता है तो उनकी सबवातें सत्य समझी जाती क्योंकि हाथी उन पूंछ पैर आदि अंगोंसे भिन्न कोई दूसरा पदार्थ नहीं था सर्व मिलेहवे अंगोंकाही नाम हाथीथा उसीप्रकार यद्यपि वस्तुका स्वरूप अनेकान्त है तोभी वहुतसे दुर्बुडी एकधर्म अथवा दोही धर्मको वस्तु मानकर समग्रवस्तुका स्वरूप समझकर अपनेको सर्वज्ञ बनने का दावा रखते हैं किन्तु उनका उस प्रकारका अभिप्राय खोटाही अभिप्राय समझाजाता है क्योंकि वस्तु अनेकधर्मस्वरूप है हां यदि वे वस्तुमें एकही धर्म हैं अथवा दोही धर्म हैं एमा एकान्त न पकडै तो किसी रीतिसे उनका उसप्रकारका कहना निवीध समझा जासक्ता है क्योंकि वे धर्म वस्तुसे जुदे नहीं हैं उनधर्मस्वरूपही वस्तु है इसलिये उनधर्मों के कहने से वस्तुका स्वरूप कथंचित् सचभी माना जासक्ता है इसलिये यह वात भलीभांति सिह होचुकी कि वस्तु एकान्तात्मक नहीं है किन्तु अनेकान्तात्मकही है किन्तु जो एकान्तात्मक मानते हैं वे दुर्बुद्धी हैं ॥ ७ ॥
केचित्किञ्चित्परिज्ञाय कुतश्चिद् गर्विताशयाः।
जगन्मन्दं प्रपश्यन्तो नाश्रयान्ति मनीषिणः ॥८॥ अर्थः-कई एक मनुष्य कहींसे कुछ थोडीसी बात जानकर अपनेको बड़ा विहान मानलेते हैं तथा अपने सामने जगतभरके विद्वानोंको मूर्ख समझते हैं अतएव अहंकारसे वे विद्वानोंकी संगति भी नहीं करना चाहते ॥८॥
धर्मको परिक्षाकरके ग्रहण करना चाहिये इसवातको आचार्य दिखाते हैं ।
जन्तुमुद्धरते धर्मः पतन्तं जन्मशङ्कटे । अन्यथा स कृतो भ्रान्त्या लोकै ह्यः परीक्षितः ॥९॥
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१६५॥
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