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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir R१२८॥ 4܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ 80000000000000000000004416604 पअनन्दिपञ्चविंशतिका । कहते हैं कि जो धनी होकर दान न देवे तो उसै मालिक नहीं समझना चाहिये किन्तु जो उसकी मृत्युके पीछे उस धनका मालिक होगा उसपुण्यवानका उसको धनकी रक्षा करने वाला दास समझना चाहिये इसलिये विहानोको धनके मिलने पर उस धनके अनुसार अवश्य ही दान देना चाहिये ॥ ३६॥ चैत्यालये च जिनसूरिबुधार्चने च दाने च संयतजनस्य सुदुःखिते च । यचात्मनि स्वमुपयोगि तदेव नूनमात्मीयमन्यदिह कस्यचिदन्यपुंसः ॥ ३७॥ अर्थः--जो धन जिनमन्दिरके काममें लगाया जाता है तथा जिसका उपयोग जिनेन्द्र भगवानकी पूजामें तथा आचार्योकी पूजामें वा अन्य विद्वानोंकी पूजामें होता है तथा जो संयमी जनोंके दानमें खर्च किया जाता है तथा जो धन दु:खितोंको दिया जाता है और जो धन अपने उपयोग में आता है वह धन तो अपना समझना चाहिये किन्तु जिस धनका ऊपर कहेहुवे कामोंमें उपयोग न होवे उस धनको किसी और मनुष्यका धन समझना चाहिये । भावार्थः-जो धन दान आदि कार्यों में व्यय होने के कारण तथा अपने काममें व्यय होनेके कारण | इस भवमें तथा परभवमें कीर्ति तथा सुखका देनेवाला हो वह धन तो अपना समझना चाहिये किन्तु जो इससे भिन्न होवे उसको दूसरेकाही समझना चाहिये ॥ ३ ॥ ___ आचार्य और भी उपदेश देते हैं। पुण्यक्षयात्क्षयमुपैति न दीयमाना लक्ष्मीरतः कुरुत संततपात्रदानम् । कूपन पश्यत जलं गृहिणः समन्तादाकृष्यमाणमपि वर्धत एव नित्यम् ॥ ३८॥ अर्थः-हे गृहस्थो कूवासे सदा चारोतरफसे निकला हुवा भी जल जिसप्रकार निरन्तर बढ़ताही 19000000000000000000000060 १२८॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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