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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatrth.org ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ Acharya Shri Kailashsagarsur Gyanmandir पद्यनन्दिपञ्चविंशतिका । अर्थः--चिरकालसे समुद्र में पड़ी हुई मणीके समान इससंसारमें उत्तम मनुष्यत्व तथा धन और जिनेन्द्र भगवानकी आज्ञाको प्राप्तकर जो मनुष्य उत्तम आदि पात्रों में दान नहीं देता वह मूर्ख मनुष्य टूटी फूटी नावपर चढ़कर तथा बहुतसे रत्नोंको साथमें लेकर दूसरे द्वीपमें जानेके लिये समुद्र में प्रवेश करता है ऐसा समझना चाहिये ।। भावार्थ:--जो मनुष्य टूटी फूटी नावपर चढ़कर तथा रत्नोंको साथ लेकर समुद्रकी यात्रा करेगा वह अवश्यही रत्नोंके साथ ससुद्र में डूबेगा उसीप्रकार जो मनुष्य उत्तममनुष्यत्व तथा धन और जिनेन्द्रकी आज्ञाको पायकर दान नहीं करेगा वह अवश्यही संसारमें चक्र खावेगा तथा उसका वह मनुष्यत्व तथा धन और जिनेन्द्रकी आज्ञा आदिक समस्त बातें व्यर्थ चलींजावेगी इसलिये जिसप्रकार समुद्र में गिरी हुई मणि की प्राप्तिहोना दुर्लभ है उसीप्रकार यह मनुष्यत्व आदिक भी दुर्लभ है ऐसा जानकर खूब अच्छीतरह दान देना चाहिये जिससे मनुष्यत्व आदिक व्यर्थ न जावे तथा संसारमें अधिक न घूमना पड़े ॥ ३५ ॥ यस्यास्ति नो धनवतः किल पात्रदानमस्मिन्परत्र च भवे यशसे सुखाय । अन्येन केनचिदनूनसुपुण्यभाजा क्षिप्तः स सेवकनरो धनरक्षणाय ॥ ३६॥ अर्थः--जो धनी मनुष्य इसभवमें कीर्तिकेलिये तथा परभवमें सुखके लिये उत्तम आदि पात्रों में | दान नहीं देता है तो समझना चाहिये वह उसधनका मालिक नहीं है किन्तु किसी अत्यन्त पुण्यवान् पुरुष ने उसमनुष्यको उस धनकी रक्षाके लिये नियुक्त किया है। भावार्थ:--जो धनका अधिकारी होता है वह निर्भयरीतिसे उत्तम आदि पात्रोंमें धनका व्यय करसक्ता ह किन्तु जो मालिक न होकर रक्षक होता है वह किसीरीतिसे धनका व्यय नहीं करता इसलिये आचार्य 1000000000000०........................०००.०००००००००००००० ܀܀܀܀ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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