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जिस समय महावीर का आविर्भाव हुआ, उस समय यज्ञों में निरीह पशुओं की बलि दी जाती थी, धार्मिक क्रियाओं का भार सदाचारी या दुराचारी, पण्डित या मूर्ख ब्राह्मणों पर था। जातिव्यवस्था में मानव समाज जकड़ा हुआथा और शूद्र लोग न वेद की ऋचाएं सुन सकते थे,न बोल सकते थे और न पढ़ सकते थे।
भगवान महावीर न केवल एक महान धर्म के संस्थापक हीथे, किन्तु महान् लोकनायक, क्रांतिद्रष्टा और विश्वबंधुत्व के प्रतिमान थे। महावीर ने मानवता को अहिंसा, दया और प्रेम का पाठ पढ़ाया, रूढ़िवाद, पाखण्ड और वर्णभेद को ध्वस्त कर समता का उद्घोष किया। भगवान महावीर ने विश्व को सच्चे समतावाद, साम्यवाद, अहिंसावाद, स्यादवाद, अपरिग्रहवाद और आत्मवाद का अमृत पिलाकर भटकती मानवता को नया रास्ता दिखाया।
भगवान महावीर के धर्मपरिवार में नौ गण और ग्यारह गणधर- इन्द्रभूति, अमिमूर्ति, वायुभूर्ति, व्यक्त, सुधर्मा, मण्डित, मौर्यपुत्र, अकम्पित, अचलभ्राता, मेतार्य और श्री प्रभास्थ थे। ये सभी ब्राह्मण थे।
भगवान महावीर ने अपने उपदेशों में कर्मवाद की महत्ता बताकर नैतिक मूल्यों का शंखनाद किया है। महावीर ने कहा, बहुत खोजने पर भी जैसे केले के पेड़ में कोई सार दिखाई नहीं देखा, वैसे ही इन्द्रिय सुख में भी कोई सुख दिखाई नहीं देता।' खुजली का मनुष्य जैसे खुजलाने पर दुख को सुख मानता है, वैसे ही मोहातुर मनुष्य कामजन्य दुख को सुख मानता है, वैसे ही मोहातुर मनुष्य कामजन्य दुख को सुख मानता है। रागद्वेष संसारी जीव के परिणाम होते हैं, परिणामों से कर्मवध होता है। कर्मवध के कारण जीव चार गतियों में शासन करता है- जन्म लेता है। जन्म से शरीर और शरीर से इन्द्रियाँ प्राप्त होती हैं। उसके जीव विषयों का सेवन करता है, उससे फिर रागद्वेष होता है। इस प्रकार जीवन संसार चक्र में भ्रमण करता है। जन्म दुख है, बुढ़ापा दुख है, रोग दुख है, मृत्यु दुख है। यहाँ संसार दुख ही है, जिसमें जीव क्लेश पा रहे हैं।
1. समणसुत्तं, पृ 16, 17
सुट्ठि माग्गिजंतो, कत्थ वि केलीइ नत्थि जह सारो।
इंदि अविसएसु तहा, नत्थि, सुहं सुड्डु वि गविढं ॥ 2. वही, पृ17, 18
जहं कच्छुल्लो कच्छं, कंडय माणे दुहं मुणई सुक्खं ।
मोहाडरा मणुस्सा, वह कण दुहं सुहं विति ।। 3. वही पृ 19
जो खलु संसारत्थो, जीवो तत्तो दु होरि परिणामो। परिणामादो कम्मं कम्मादो होदि गदिसु गदि ॥ गदिमधिगदस्स देहो, देहादो इंदियाणि जायते । तेहि दु विसवग्गहणं, तत्वो रागो वा देसो वा ।।
जायदि जीव जीवस्सेवं, भावो संसार चक्कवालम्भि। 4. वही, पृ19
जन्म दुखं, जरा दुक्खं, रोगा य मरणादि य । अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसन्ति जंतवो ।।
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