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417 कास्वर्णिम पृष्ठ ही नहीं, किन्तु भारतीय संस्कृति के इन्द्रधनुषी स्वरूप की भी एक मनोहर रंगाभा है, जिसकी दीप्ति इस सुदीर्घ काल खण्ड के झंझावातों में कभी धूमिल नहीं हुई।'' राजस्थान में पश्चिम क्षेत्र श्वेताम्बर सम्प्रदाय का गढ़ रहा और इसी क्षेत्र में ओसवंश ने जैनमत के सांस्कृतिक प्रतिमानों के संरक्षण में योग दिया। अर्बुदमण्डल जैन सम्प्रदाय का सबसे बड़ा केन्द्र रहा। राजस्थान में जैनधर्म के महत्वपूर्ण स्तम्भ जैन संस्थाएं हैं, जिन्होंने सुदृढ़ नींव की भांति आधार प्रदान कर जैन संस्कृति की गतिशीलता को संवर्धित किया है।
जैन संघ के संगठन में श्रमण और श्रमणियों का महत्वपूर्ण योग रहा है । वीरागी, निस्पृह, निस्वार्थ, शास्त्रोक्त और मर्यादित जीवन जीने के कारण इनका जीवन तीर्थ से कम नहीं है। इन श्रमण और श्रमणियों ने निरन्तर उद्बोधन ने समाज को जागृत किया है। इन्होंने श्रावक समाज के नैतिक और आध्यात्मिक पूर्णता के लिये सात्विक जीवन की प्रेरणा दी है। इन्होंने समाज से सूक्ष्म लिया है और स्थूल ही दिया है- कम लिया और अधिक दिया है। इन्होंने लोकभाषा में, लोकजीवन को, लोककथाओं के माध्यम से आध्यात्मिकता की स्रोतस्विनी प्रवाहित की है। जैन साहित्य रचना
इन श्रमण और श्रमणियों ने अनवरत साहित्य का सृजन किया है। जैनमत से जुड़े साहित्य रचना में श्रमण और श्रमणियों के साथ श्रावक-श्राविकाएं भी संलग्न रही है।
जैन जातियां (ओसवंश) से सम्बद्ध श्रमण-श्रमणियों और श्रावक श्राविकाओं ने जैनमत के सांस्कृतिक प्रतिमानों के संरक्षण में साहित्य रचना के द्वारा अभूतपूर्व योग दिया
1. उमास्वाती- तत्वार्धसूत्र (जैनधर्म की गीता) 2. विमलसूरि- पउमचरिअं (जैन रामायण) 3. आचार्य पादलिप्त- तरंगावती (प्राकृत भाषा की सुन्दर कथा) 4. सिद्धसेन दिवाकर- न्यायावतार (जैन साहित्य का पहला तर्क एवं पद्य ग्रंथ) 5. उद्योतनसूरि (नवीं शताब्दी), कुवलयमाला (कथाग्रंथ) 6. शिवशर्मासूरि (वि.सं. 500) कर्म प्रकृत, कर्मग्रंथ (101 गाथाएं) 7. चन्दर्षि महत्तर (पंचसंग्रह कर्मविषयक ग्रंथ) 8. सिद्धसेन गणि- 'तत्वार्थसूत्र' की टीका 9. धनेश्वरसूरि- कल्पसूत्र (वि.सं. 510/523) 10. महाकवि मानतुंग- भक्तामर स्तोत्र (प्रसादमयी और भावप्रधान भाषा में) 11. जिनभद्र गणी क्षमाक्षमण (वि.सं. 645)
1. विशेषावश्यक भाष्य
1. डॉ. (श्रीमती) राजेश जैन, मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म.4461 2. वही, 1464
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