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प्रथम अध्याय
पीठिका : ओसवंश के पहले भारतीय जन
आदमी का उद्भव सबसे पहले कहाँ हुआ, यह मनोरंजक और विवादास्पद प्रश्न है। कोई इसे सीरिया में, कोई पश्चिम एशिया में, कोई मध्य एशिया में, कोई बर्मा, कोई अफ्रीका, कोई उत्तरी ध्रुव और अनेक भारतीय विद्वान प्रथम मनुष्य का जन्म भारत में मानते हैं। ‘अफ्रीका के पक्ष में एक दलील दी जाती है कि वहाँ चिंपांजी और गोरिल्ला बन्दर बहुतायत से पाये जाते हैं। इसके सिवाय अफ्रीका में बहुत सी हड्डियाँ पाई गई हैं, जिनके बारे में यह अनुमान है कि वे आदि मानव की हड्डियाँ होंगी।''
'भारतीय इतिहास कांग्रेस' के ग्वालियर वाले अधिवेशन (1952 ई.) में सभापति पद से भाषण देते हुए डॉ. राधाकुमुद मुखर्जी ने कहा कि आदि मनुष्य पंजाब और शिवालिक की ऊँची भूमि पर विकसित हुआ होगा, इस बात के प्रमाण मिलते हैं। मुखर्जी महोदय का मत यह दीखता है कि मनुष्य भारत में ही उत्पन्न हुआ था और इसी देश में उसकी सभ्यता भी विकसित हुई। पंजाब में हिमालय के पास मनुष्य का आदि जन्म, फिर सिंधु की तराई में कृषि सभ्यता का विकास और सिंधु के पठार में भारत की प्राचीनतम सभ्यता का अवशेष पाया जाना, ये सारी बातें एक दूसरे को पुष्ट करने वाली है और अजब नहीं कि अध्ययन और खोज करने पर मुखर्जी महोदय का अनुमान ही सत्य प्रमाणित हो।'
इन विवादों के बीच यह तो निश्चित है कि भारत में जो भी लोग मौजूद हैं, उनके पूर्वज इस देश में अन्य देशों से आये और अन्य देशों से आकर ही उन्होंने आपस में मिश्रित होकर इस देश में जनसमूह की रचना की, जिसे हम भारतीय जनता कहते हैं। और भारत की मिट्टी पर अनन्तकाल से, कितनी विभिन्न जातियाँ, कितने प्रकार के लोगों का समागम होता रहा है, वह किस्सा भी काफी मजेदार है। अगर ईसाइयों और मुसलमानों को छोड़ दें, तब भी इस देश में एक के बाद एक, कम से कम ग्यारह जातियों के आगमन और समागम का प्रमाण मिलता है, जिन्होंने इस देश को अपना देश मान लिया और जिनका एक एक सदस्य यहाँ की संस्कृति और समाज में पच खप कर आर्य अथवा हिन्दू हो गया। नीग्रो, आस्ट्रिक, द्रविड़, आर्य, यूनानी, यूची, शक, आभीर, हूण, मंगोल और मुस्लिम आक्रमण के पूर्व तुर्क, इन सभी जातियों के लोग कई झुण्डों में इस देश में आये और हिन्दू समाज में दाखिल होकर सबके सब उसके अंग हो गये। असल में हम जिसे हिन्दू संस्कृति कहते हैं, वह किसी एक जाति की देन नहीं, बल्कि इन सभी जातियों की संस्कृतियों के मिश्रण का परिणाम है।'
1. रामधारी सिंह दिनकर, संस्कृति के चार अध्याय, पृ. 27 2. वही, पृ. 27 3. वही, पृ. 28
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