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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 259 इसके अनुसार बप्पभट्ट सूरि ने कन्नोज के आमराजा (नागभट्ट पड़िहार) को प्रतिबोध देकर जैनी बनाया। उस राजा के एक रानी वणिक पुत्री थी। इससे होने वाली संतानों को इन आचार्य ने ओसवंश में मिला दिया, जिनका गोत्र राजकोष्ठागार हुआ। प्रसिद्ध इतिहासकार स्व. मुंशी देवीप्रसाद के राजपूताने की शोधखोज' के अनुसार कोटा राज्य के अटरू नाम ग्राम में जैन मंदिर में एक खण्डहर में एक मूर्ति के नीचे विक्रम संवत् 508 की है, जिसमें भैंसाशाह के नाम का उल्लेख है। यदि यह भैंसाशाह और जैनमत के अन्दर प्रसिद्धि प्राप्त आदित्यनाग गोत्र का भैंसाशाह एक ही है, तो इसका समय वि.स. 508 का निश्चित करने में कोई बाधा नहीं आती। अंत में यह कहा जा सकता है कि अब ओसिया की प्राचीनता सिद्ध हो चुकी है इसलिये अभिलेखी प्रमाणों का मोह त्यागकर साहित्यिक साक्ष्य के आधार यह स्वीकार करना पड़ेगा कि वीर निर्वाण संवत् 70 में पार्श्वनाथ परम्परा के षष्ट पट्टधर रत्नपभसूरि से प्रतिबोध पाकर अनेक क्षत्रिय (18 गोत्र- राजपूत नहीं) महाजन बने। महाजनों के रूप में ओसवंशका बीजारोपण भगवान महावीर युग में उनके निर्वाण के 70 वर्ष पश्चात् (विक्रम पूर्व 400 में) हुआ, किन्तु विक्रम संवत् 222 में ओसवंश का नामकरण हुआ। जैनमत के इतिहास में संघभेद के बीज पड़ने के साथ महाजन वंश के रूप में ओसवंश का बीजारोपण हुआ और जब माथुरी वाचना में संघभेद स्थायी हो गया, उसके समानान्तर ओसिया के महाजन अन्य ग्रामों और नगरों में ओसिया निवासी होने के कारण ओसवंशी कहलाए। ओसवंश के उद्भव को लेकर कितना पिष्टपेषण और चर्वित चर्वण हुआ है, इसलिये आवरण को विदीर्ण कर सत्य का साक्षात्कार आवश्यक है। दिग्गज इतिहासकारों ने ओसवंश के मूल पुरुष और परमारों के राजा उत्पलराज को एक मानकर एक काल्पनिक महल खड़ा कर दिया। बिना किसी तथ्यात्मक आधार के केवल नाम साम्य देखकर कल्पना की ऊँची उड़ान भरना, किसी भी स्थिति में श्रेयस्कर नहीं। यह सही है कि किसी जाति की प्राचीनता गौरव की बात नहीं, किन्तु किसी जाति का गौरव उसके विकास और उत्कर्ष में है। ओसवंश श्वेताम्बर परम्परा की जैन जातियों में अग्रगण्य है, इसलिये श्वेताम्बर परम्परा और ओसवंशीय परम्परा को समानान्तर रूप से देखकर ही इसके उद्भव के प्रश्न को हल किया जा सकता है। जैसे गंगा गौमुख से निकली और फिर कितनी ही नदियां उसमें समाती गई और इस तरह कालांतर में एक विशाल नदी का रूप धारण कर लिया, उसी प्रकार ओसवंश का उद्गम भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् वीर संवत् 70 में (विक्रम पूर्व 400 वर्ष में) हुआ और फिर धीरे धीरे कितनी ही जातियां अपना धर्मांतरण/रूपातंरण कर इस ओसवंश रूपी स्रोतस्विनी में समाती गई। 1. ओसवाल जाति का इतिहास, 17 2. वही, पृ17 For Private and Personal Use Only
SR No.020517
Book TitleOsvansh Udbhav Aur Vikas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavirmal Lodha
PublisherLodha Bandhu Prakashan
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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