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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 227 उस समय कुवराण्या का सत जागा। उसने श्राप दिया “धांधूजी री दूसरी राणी रो वंश मत चालज्यो, राज मत रहीजो।' वही हुआ। राठौड़ों ने राज्य छीन लिया। दोनों ने सती होने का निश्चय किया । छोटो गर्भवती थी, इसलिये सती नहीं हुई। ओसिया आकर उसने एक बच्चे का जन्म दिया। उसका नाम भगवान सिंह रखा गया। - कुछ वर्ष पश्चात् रत्नसूरि जी महाराज ओसिया पधारे। उनके शिष्यों को गोचरी नहीं मिली। अंत में एक सुथार के यहाँ पहुँचे। सुथार ने जंगल से लकड़ियां लाने के लिये कुल्हाड़ी पकड़ा दी। इस तरह किसी तरह चार मास बीते । गुरुजी को क्रोध आ गया। धर्म की प्रभावना के लिये दूसरा रास्ता अपनाया। रुई की पूणी की मंत्रबल से सर्प बनाकर राजा पर छोड़ दिया। राजा ने नाबालिग भगवान सिंह को डस लिया। लोग उन्हें श्मशान ले जा रहे थे। शिष्य ने उनका रास्ता रोक लिया और गुरुजी के पास ले गये । बारह सामन्तों ने गुरुजी से प्रार्थना की। गुरुजी ने पुनर्जीवित कर दिया। सामन्तों और भगवानसिंह ने तत्काल शैवधर्म छोड़कर जैनधर्म अंगीकार कर दिया। भाटों की इस कथा के अनुसार यह घटना संवत् ‘बीये बाइसे' श्रावण सुदी 8 गुरुवार को हुई। उन तेरह व्यक्तियों के तेरह गोत्र हुए- तातेड़, बाफणा, सामसुखा, वेद, बोरड, बांठिया, मिनी, संकलेचा, सुरेश गोला, आरा, झावक, देशवाल, लूकड़। सामंतों और भगवान सिंह ने हिंसा का त्याग कर दिया। देवी को महाभोग नहीं मिलने पर देवी क्रुद्ध हुई। गुरुजी ने बकरों की बली के स्थान पर कहा- 'खाजा रो खड़को, खोपरा रो भड़को और मीठी लायसी रो डेरो।' देवी के आदेश पर भगवानसिंह को गांव छोड़ना पड़ा। भगवानसिंह का बेटा लाभराज सोजत जाकर बसा। वह नवाब की बेगम सलमा का धर्मभाई बना। सलमा के आंख में पीड़ा हुई। पूजा में बैठे लाभराज ने कहा- आंख में आक का दूध और बालू रेत डाल दो। आंखें फूट जानी चाहिये, पर ठीक हो गई। इसी से उसके वंशजों का वेद गोत्र हुआ। इस कथा से पता चलता है कि रत्नप्रभसूरि से प्रतिबोध उपलदेव ने नहीं, भगवान सिंह ने लिया। इसके अनुसार ओसिया संवत् 184 में बसाई और सं 222 में जैनधर्म अंगीकार किया। अधिकांश भाट, भोजक और सेवग आदि के अनुसार ओसवालों का उद्भव संवत् 222 में हुआ। अभयग्रंथालय के दो गुटकों (संख्या 7765, 501) और केलड़ी मंदिर के एक गुटके (संख्या 1275) में ओसवाल जाति का उद्भव संवत् 119 माना है। भाटों और भोजकों ने उपलदेव को ही ओसवालों का आदि पुरुष माना है। सब में जैनाचार्य रत्नप्रभ सूरि ही नाम है। किसी भी गुटके में “वीये वाइसे' के पहले विक्रम नहीं है। __ यति रामलाल जी ने महाजन वंश मुक्तावली में माना है, "भाटों का ‘बीये बाइसे' विक्रम संवत् नहीं, नंदिवर्धन का संवत्सर है।" नंदिरसंवत्सर माने तो भी वीरात् संवत् वाली बात सिद्ध नहीं होती। महावीर के भ्राता नंदिवर्धन ने भगवान महावीर के दीक्षा के समय एक संवत् प्रवर्तित किया था। यह नंदि संवत् माने तो 47+70 = 112 नंदि संवत्सर आता है। For Private and Personal Use Only
SR No.020517
Book TitleOsvansh Udbhav Aur Vikas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavirmal Lodha
PublisherLodha Bandhu Prakashan
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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