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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 201 इस 'नाभिनन्दन जिनोद्धार' में श्रेष्टि वेसट का वंशवृक्ष दिया है। उपकेशवंशीय वेसट वरदेव जिनदेव नागेन्द्र सलक्षण (पालेनपुरगया) ओजड गोसल देसल (पाटन गया) समासिह शाल्हाशाह वि.सं 800 के पूर्व ओसवंशीय लोग भारत में चारों ओर फैल गये थे। मुनि श्री रत्नविजय जी महाराज की शोधखोज से ओसिया के एक भग्न मंदिर के खण्डहरों में एक टूटी हुई चन्द्रप्रभजी की मूर्ति के नीचे खण्डित पत्थर के टुकड़े पर वि.सं 602 आदित्यनाग गोत्रे अंकित है। इससे यह पता चलता है कि संवत् 602 के पूर्व उपकेशपुर ओसवंशियों से फलाफूला और आबाद था। विक्रम की छठी शताब्दी में तोरमाण के बाद मेहिरकुल के अत्याचारों से मारवाड़ में विशाल संख्या में ओसवाल, पोरवाल, श्रीमाल मिलते हैं। वि.स. 802 में आचार्य शीलगुण सूरि से प्रेरणा पाकर जैन शासक वनराज चावड़ा ने अणहल्लपुर नामक नया पाटनशहर बसाया। उस समय चंद्रावली भिन्नमालादि मारवाड़ के ओसवालादि जैनों को पाटण ले गये। ओसियामंदिर की प्रशस्ति के शिलालेख में उपकेशपुर के परिहार राजाओं में वत्सराज सरषीषु सरोमानि विकचानि सदाऽभवन । यत्र दी प्रगणिज्योतिहर्वस्त रात्रि तमस्तवतः ।। निशासु गत भर्तृणां गृहजालेषु सुभ्रुवाम् । प्राप्त श्चनंद्रकरा: कामक्षिप्ता रूण्या शरा इव ॥ यत्रास्ति वीर निर्वाण सप्तत्या वत्स रैर्ग तैः । श्रीमद्रत्नप्रभाचार्यैः स्थापित: वीर मंदिरम् ।। तदादि निश्चतासीनो यत्रा ख्याति जिनेश्वरः । श्री रत्नप्रभसूरीणां प्रतिष्ठाऽतिशयं जने ।। 1. भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास, प्रथम जिल्द, पृ 162 2. वही, पृ163 For Private and Personal Use Only
SR No.020517
Book TitleOsvansh Udbhav Aur Vikas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavirmal Lodha
PublisherLodha Bandhu Prakashan
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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