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200 निकाला; वि.स. 578 में चंद्रावली नगरी में वीरहरगोत्र सारंग के पुत्र सायर ने माघशुक्ल 5 को आचार्य कनकसूरि के पट्ट महोत्सव में सवालक्ष द्रव्य व्यय किया; वि.सं 595 में लघुश्रेष्ठि गोत्रीय शाह देवाल धनदेव ने आचार्य कनकसूरि के उपदेश से भीनमाल नगर में श्री शत्रुजय का संघ निकाला जिसमें सातलक्ष द्रव्य व्यय किया गया और चिंचट गोत्रे शाह वीरदेव ने वि.सं 599 में शत्रुजय संघ पर 7 लक्ष द्रव्य खर्च किये। इसी तरह कनोजिया गोत्र, (वि.से 908) मोरखगोत्र (वि.स. 658) भूरिगोत्र (वि.स 497) प्राग्वटवंश (वि.स. 302) के उल्लेख मिलते हैं। इन प्रमाणों से वंशावलियां भरी पड़ी है। वि.सं 33 में उपकेशवंशीय बलाह गोत्र के शाह वीरमदेव ने एक माहेश्वरी रामपाल की पुत्री से विवाह कर लिया, जिसका विरोध हुआ किन्तु आचार्य रत्नप्रभसूरि ने इस विवाह का शमन किया।
इन वंशावलियों से पता चलता है कि किस किस समय जैनेतर क्षत्रियों को प्रतिबोध देकर किस किस जैनाचार्य ने जैन बनाए और जातियों के नाम संस्करण किये । वंशावलियां अधिक प्राचीन तो नहीं है, किन्तु वंश परम्परा के ज्ञान को इनमें संचित किया गया है। 'नाभिनन्दन जिनोद्धार' एक ऐतिहासिक ग्रंथ है। इससे पता चलता है कि विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी में उपकेशपुर, उपकेशगच्छ और उपकेशवंश किस तरह थे। इसके अनुसार मरुभूमि का भूषण रूप उपकेशपुर नाम का एक श्रेष्ठनगर है, जो पृथ्वी पर स्वस्तिक की तरह अतिसुन्दर और षटऋतु के फलफूलों सहित बाग बगीचे से शोभायात्रा है। वहां रहने वाले मुनिजन कनक कामिनी के सम्बन्ध से बिल्कुल मुक्त है, परन्तु नागरिक लोगों में ऐसा कोई दृष्टिकोगोचर नहीं होता है, जिसके पास पुष्कल द्रव्य और विनीत सुन्दर रमणी न हो। उस नगर में हंसों की चाल रमणियों की चाल हंस बिना ही उपदेश के शिक्षा पा रहे हैं। मकानों पर लगी मणियों की कांति से अंधकार का नाश होता है और तालाबों के अन्दर कमल सदा प्रफुल्लित रहते हैं। रात्रि के समय मकान की जालियों के अंदर चंद्र की किरणों का प्रकाश विरहणी औरतों को कामदेव के बाण की भांति संतप्त करता है। व्यापार का तो एक ऐसा केन्द्र है कि पितापुत्र अलग अलग व्यापार करने वाले छ छ मास में भी मिल नहीं सकते। उस नगर में वीर निर्वाण से 70वें वर्ष आचार्य रत्नप्रभसूरि ने भगवान महावीर के मंदिर की हुई मूर्ति आज पर्यन्त विद्यमान है। उस नगर में विशाल एवं उन्नत धन धान्य सम्पन्न एक संगठन में संगठित उपकेश नाम का एक उन्नत वंश है और जैसे वंश पत्तों से एक बड़ शाखाओं से शोभायात्रा है, वैसे यह उपकेशवंश 18 गोत्र से शोभायमान है।'
1. भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा, प्रथम जिल्द, पृ151-153 2. वही, पृ 156 3. वही, पृ 156 4. नाभिनन्दन जिनोद्धार, 17-48
अस्ति स्वस्तिचव्व द भूमेरु देशस्य भूषणम् । निसर्ग सर्ग सुभगमुपके शपुरं वरम् ॥ सागा यन सदारामा अदारा मुनि सत्तमाः । विद्यन्ते न पुन: कोऽपि ताद्दक पौरेषु दृश्यते ॥ यत्र रामागति हंसा रामा वीक्ष्य च लद्रतिम । विनोपदेश मन्योन्यं ताँ कुर्वन्ति सुशिक्षिताम् ।।
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