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117 उस समय श्रमणवर्ग में शिथिलता थी, चैत्यावास में विकार थे और धर्म का रूढ़िगत रूप प्रशस्त हो रहा था। जिनवल्लभसूरि ने चित्तोड़ के महावीर मंदिर के 44 श्लोकों में कहा, “जाति, वेश, गुण, ज्ञान और किसी प्रकार की परीक्षा के लिये चैत्यावासी धड़ाधड़ चेले मूंडते फिरते हैं।"
निर्वाहार्थिन मुजिवं गुणलवैरज्ञानशिलान्वयं।
ताश्यावंश तद्गुणेन गुरुणा स्वार्थाय मुण्डीकृतम्।
इसमें आगे कहा है कि ये चैत्यवासी श्रद्धा में फंसे हुए जैनों की तीर्थयात्रा, प्रतिमा स्नान आदि के नाम लेकर इस प्रकार छल से फंसाते हैं, जैसे मच्छीमार कांटे में आटा लगाकर मच्छियों को फंसाता है।
आकृष्टं मुग्धभीनान् बरिश पिशिवद् बिम्बमादर्श्य जैन, तन्माइछ;ण रम्यरूपानपवर कमवम स्वेष्टसिद्धचै विछण्य। यात्रा स्नात्रायु पार्य येसि तक निशाजाराद्ये श्वलैश्च,
श्रद्धालु नमि जैनेश्द्वलित इव शडैर्वच्यते हा जनोइयम ।
आगे कहा है किवे चैत्यवासीसाधुवर्ग श्वेतवस्त्र पहनकर, देवद्रव्य के नाम से अर्थसंग्रह करके अपनी इच्छानुकूल अपने मठ बनवाते हैं और उनमें सदा आराम से रहते हैं। ये साधु सुविधाभोगी, परिग्रही, लोलुप, ईर्ष्यालु और लोभी हैं और सुखलंपट भी -
देवार्थ व्ययतो यथारुचिकृते सर्वतुर्रम्ये मठे । नित्यस्थाः शुचि पदृतूलिशयना: सद्गाविद काद्यासनाः ॥ सारंभा: सपरिग्रहः सविषयाः सेाः साकांक्षा: सदा। साधु व्याजावित अहो सितपरा: कष्टं चरंति व्रतम ॥
चैत्यावास के प्रारम्भ में ही सम्बोधि प्रकरण' में हरिभद्रसूरि ने कहा था, “भगवान महावीर के साधु आज सूर्य के उदय होते ही उदरपोषण करने लगते हैं। स्वादिष्ट मिष्ठानों का बार बार भक्षण करते हैं। शय्या जोड़ा, वाहन, शस्त्र और तांबा वगैरह धातु के पात्र अपने पास रखते हैं। इत्र फुलेल लगाते हैं। तेल मर्दन करते हैं। ग्राम, कुल और शिष्यों पर अपना अधिकार बताते हैं। प्रवचनों के स्थान पर निन्दा करते हैं। भिक्षा स्वयं न लाकर अपने उपाश्रम में ही मंगाकर खाते हैं। छोटी छोटी उम्र के बच्चों को क्रय करके दीक्षित करते हैं । यंत्र, डोरा, ताबीज आदि का आडम्बर करते हैं । पैसा, धन और परिग्रह पर गृद्ध दृष्टि रखते हैं।"
लोकाशाह ने माना कि धर्म के उपकरण-रजोहरण, मुखपत्री, दण्ड आदि उपकरण मात्र हैं, धर्म नहीं। धर्म तो आत्मा की भूख है और है, आत्मा का स्वभाव। लोंकाशाह जैनमत में क्रांति के सूत्रधार बने।
उस समय लोकाशाह पर आरोपों की बौछार हुई। उन पर आरोप लगाए कि लोंकाशाह चैत्यवाद के विरोधी हैं, गुरु को अस्वीकार करते हैं, केवल मूल आगमों को प्रामाणिक मानते हैं, टीका और इतर ग्रंथों को नहीं, दान की अपेक्षा दया को धर्म मानते हैं, ये यति परम्परा नहीं मानते,
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