SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 84 स्थविरकल्प कहते हैं । यह स्थविर कल्पवृक्ष श्वेताम्बर सम्प्रदाय का पूर्वज है और दूसरा पक्ष जिनकल्प है, जो नियमों का अक्षरश: पालन करता था, जैसा महावीर ने किया, यह पक्ष दिगम्बरों का अग्रज है।" वस्तुत: गौतम गणधर, सुधर्मा स्वामी और जम्बूस्वामी तक भगवान महावीर का जैन संघ अखण्ड रूप से प्रवर्तित हुआ। भगवान महावीर के इन तीनों उत्तराधिकारियों को दोनों सम्प्रदाय अपना धर्मगुरु मानते हैं। यद्यपि अन्तर इतना अवश्य प्रतीत होता है कि दिगम्बर परम्परा गौतम गणधर को ही विशेष महत्व देती है, जब कि श्वेताम्बर परम्परा सुधर्मा को। सुधर्मा के शिष्य जम्बू स्वामी थे। जम्बू स्वामी के पश्चात् अनुबद्ध केवलज्ञानी नहीं हुआ और इस तरह केवलज्ञानियों की परम्परा का अन्त हो गया। __जम्बूस्वामी के पश्चात् ही दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा की गुर्वावली में अन्तर पड़ता है और केवल एक श्रुतकेवली भद्रबाहु है, जिन्हें दोनों मान्य करते हैं। ऐसा लगता है कि जम्बूस्वामी के पश्चात् ऐसा विवाद खड़ा हुआ, जिसके कारण दोनों की आचार्यों की नामावली में अन्तर पड़ गया। जम्बू स्वामी के पश्चात् जिनकल्प विच्छिन्न हो गया। जिनकल्प विच्छिन्न होने के कथन का यह अभिप्राय हो सकता है कि पूर्व के कठोर मार्ग में नरमी आई और धीरे धीरे वनवासी से चैत्यवासी बन गये। दिगम्बर परम्परा के अनुसार श्वेताम्बर सम्प्रदाय की उत्पत्ति वलभी नगरी में हुई। वलभी में किये गये अंगों के लेखनकार्य ने संघभेद की दीवार को स्थायी कर दिया। दिगम्बर परम्परा के अनुसार भद्रबाहु के समय में संघभेद का बीज बो दिया गया और वलभी में उसकी उत्पत्ति हो गई। वलभी में आगम ग्रंथों को पुस्ताकारूढ किया गया। वलभी वाचनाका समय वीर निर्वाण संवत् 980 है, जो वि.सं. 510 है। मथुरा के कंकाली टीले के अवशेष ईसा की प्रथम और द्वितीय शताब्दी के हैं। वुहलर के अनुसार “मथुरा के जैन श्वेताम्बर सम्प्रदाय के थे और दूसरे जिस संघभेद ने जैन सम्प्रदाय को परस्पर विरोधी दो सम्प्रदायों में विभाजित कर दिया, वह ईस्वी सन् के प्रारम्भ होने के बहुत पहले हो चुका था। वलभी वाचना से लगभग डेढ़ सौ वर्ष पूर्व वि.स. 357-370 के मध्य में मथुरा में वाचना होने का निर्देश श्वेताम्बर साहित्य में पाया जाता है। संघभेद की तीनों सीढ़ियाँ क्रमश: स्थापित हुई। भद्रबाहु श्रुतकेवली के पश्चात् गुरुभेद स्थायी रूप से स्थापित हो गया। एक पक्षीय आगम वाचना से प्रारम्भ हुआ संघभेद वलभी में आगमों की संकलन और पुस्तकारूढ़ता के साथ स्थायी हो गया। तथा फिर देवमूर्तियों में पहले वस्त्र को और फिर देव को भी पृथक कर दिया और इस तरह संघभेद चिरस्थायी कर दिया गया। श्रुतकेवली भद्रबाहु तक अखण्ड जिन शासन की वैजयन्ती फहराती रही और उसके 1. Mrs. Stevension, House of Jainism, Page 79. 2. Indian Sect of the Jains, Page 44 For Private and Personal Use Only
SR No.020517
Book TitleOsvansh Udbhav Aur Vikas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavirmal Lodha
PublisherLodha Bandhu Prakashan
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy