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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मतान्तर से नय के पाँच सौ भेद भी हैं, यह दिखलाते हैंअथैवंभूतसमभिरूढयोः शब्द एव चेत् । अन्तर्भावस्तदा पञ्च नयाः पञ्चशतीभिदः ॥ २०॥ अर्थ यदि समभिरूढ़ और एवंभूत का शब्दनय में ही समावेश कर दिया जाय तो मूल में नय पाँच हैं और उनके उत्तरभेद पाँच सौ होते हैं । विवेचन जब मूल में नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत - नय के ये सात भेद मानकर चलते हैं तो, प्रत्येक मूलनय के सौ भेद होने से उत्तरभेदों की संख्या सात सौ होती है । परन्तु जब समभिरूढ़ तथा एवंभूत की पृथक् गणना न करके उन दोनों का शब्दय में अन्तर्भाव कर देते हैं तो, मूल में नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द-ये पाँच नय ही रह जाते हैं, और प्रत्येक मूलनय के सौ-सौ भेद होने से पाँच नयों के कुल मिलाकर पाँच सौ भेद हो जाते हैं । इस मतान्तर क । उल्लेख करते हुए श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने भी कहा है कि "एक अन्य आदेश भी है, जिससे नय के पाँच सौ भेद होते हैं - "अन्नो वि य एसो, पंचसया होति नयाणं । " - विशेषा०, २२६४ [ ५१ For Private And Personal Use Only
SR No.020502
Book TitleNaykarnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinayvijay, Sureshchandra Shastri
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year
Total Pages95
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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