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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रकारेण पर्याय-शब्देषु निरुक्तिभेदेन भिन्नमर्थमभिरोहन समभिरूढ़ :-अर्थात् पर्यायवाचक शब्दों में व्युत्पत्ति-मूलक शब्द-भेद की कल्पना करने वाला नयं ।” ___ ग्रन्थकार ने पंद्य के उत्तरार्ध में उदाहरण देते हुए कहा है कि जैसे घट और पट-इन दोनों के प्रवृत्ति-निमित्त (व्युत्पत्ति) अलग होने से अर्थ भी भिन्न-भिन्न हैं ; उसी प्रकार कुम्भ, कलश और घट-ये तीनों पर्यायवाची शब्द भी भिन्नभिन्न अर्थ के प्रतिपादक हैं ; क्योंकि तीनों की व्युत्पत्तियाँ भिन्न-भिन्न हैं । कुम्भनात् [कुत्सित रूप से पूर्ण होने से] कुम्भः, कलनात् [जल से शोभा पाने वाला होने से कलशः,घटनात् [ जलाहरणादि विशिष्ट चेष्टा करने वाला होने से ] घटः । सारांश यह है कि जैसे वाचक शब्द के भेद से घट-पट-स्तम्भ आदि शब्दों से वाच्य घटादि पदार्थ भिन्न है,उसी प्रकार कुम्भ, कलश, घट आदि में भी वाचक शब्दों का भेद है, अतः उनका अर्थ भी भिन्न-भिन्न होना चाहिए । कारण, एक अर्थ में अनेक शब्दों की प्रवृत्ति नहीं हो सकती-ऐसा समभिरूढ़ नय का मन्तव्य स्पष्ट है । शब्दनय की दृष्टि से इन्द्र, शक्र, और पुरन्दर-ये सब एकार्थक हैं, इनका अर्थ इन्द्र है। परन्तु, समभिरूढनय की दृष्टि से "इन्दनात् इन्द्रः = ऐश्वर्य वाला होने से इन्द्र, शक्नात् = शक्रः = शक्ति वाला होने से For Private And Personal Use Only
SR No.020502
Book TitleNaykarnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinayvijay, Sureshchandra Shastri
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year
Total Pages95
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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