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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir wwwrnmmmmmm................. समभिरूढनय ब्रूते सममिरूढोऽर्थ, भिन्नपर्यायभेदतः । भिन्नार्थाः कुम्भकलशघटा घटपटादिवत् ॥१५॥ अर्थ समभिरूढ़नय शब्द के पर्याय भेद से भिन्न-भिन्न अर्थ का प्रतिपादन करता है । घट-पट की तरह कुम्भ, कलश और घट शब्द भिन्न-भिन्न अर्थ के वाचक हैं। विवेचन शाब्दिक धर्मभेद के आधार पर अर्थभेद की कल्पना करने वाली मानव-बुद्धि जब जरा और गहराई में उतरती है, तो वह यह मानने के लिये तैयार हो जाती है कि जब काल, लिङ्ग, कारक और उपसर्ग के भेद से अर्थ-भेद माना जा सकता है तो, व्युत्पत्ति-भेद से अर्थ-भेद भी क्यों न स्वीकार किया जाय ? इस व्युत्पत्ति-मूलक शब्दभेद से अर्थभेद मानकर ही समभिरूद्ध नय की प्रवृत्ति होती है । समभिरूढ़ नय कहता है कि प्रत्येक शब्द अपनी व्युत्पत्ति ( प्रवृत्ति निमित्त ) के आधार पर भिन्न-भिन्न अर्थ का प्रतिपादन करता है । समभिरूढ़ का अर्थ ही यह है कि “सम् = सम्यक For Private And Personal Use Only
SR No.020502
Book TitleNaykarnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinayvijay, Sureshchandra Shastri
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year
Total Pages95
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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