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(नाडीप्रकाश९१)
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लवा तितर वतीनां गमनं सन्मिपाव तः॥कदा विन्मन्द गमना कदावि देग वाहिनी॥त्रिदोष कोप तो ज्ञेयाई
तिच स्थानवियता॥४७॥ टीका-जिस रोगी की नाडी वटेर तीतर कीसीचालचलेउसे सन्नि पात की नाडी कहते है और दो दोषों की नाड़ी कभीधी रीचलती है और कभी जल्दी चलती है और जोनाडी-अप ने स्थान को त्यागदे उस नाड़ी को प्राणों के हरने वाली जाना
स्थित्वा स्थित्वा चल नियासा स्मृता प्रारा नाशिनी ॥ अविक्षीगा चशी
नाव जीवितं हंत्य संशयः॥ ४०॥ टीका-जो नाड़ी दश पांच वार चलके वन्द होय के चले या अति धीरी चले मोर अति ही ठंडी होय तो रोगी प्राणों के हरने वाली जानी॥
शिरा यस्य वाता दिता पित दग्या कफे नानि कोपेन नाडी कृतासा ।। 'गदी सोल्यु कालेन मृत्यो दिदीरोई मुख यास्चत दंत दंष्टा भिकीरों ॥
॥४८॥
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