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आयुर्वेदोक्तनाडीपरीक्षा मन्दाग्नेः क्षीणधातोश्च नाडी मन्दतरा भवेत् ।।
मन्देऽनौ क्षीणतां याति नाडी हंसाकृतिस्तथा ॥१८॥ अर्थ-दीप्ताग्निवाले मनुष्यकी नाडी हलकी और वेगवती होती है, मंदानिवालेकी और क्षीणधातुकपुरुषकी नाडी मंदतर होती है, इसीप्रकार जिस मनुष्यकी जठराग्नि सर्वथा मंदहोई हो उसकी नाडी हंसके समान अतिशय मंदहोती है ॥१८॥
आमाश्रमे पुष्टिविवर्धनेन भवन्ति नाड्यो भुजगाग्रमानाः।
आहारमान्यादुपवासतो वा तथैव नाड्योऽग्रभुजाभिवृत्ताः॥१९॥ __ अर्थ-आम, और परिश्रम न करनेसैं तथा देहमें अत्यंत पुष्टता होनेसैं नाडी सर्पके अग्रभागके सदृश होती है इसीप्रकार थोडा भोजन करनेसैं या उपवास करनेसैं नाडी भुजाके अग्रभागमें सर्पके अग्रभाग समान होती है ॥ १९ ॥
ग्रहणीरोगे। पादे च हंसगमना करे मण्डूकसंप्लवा ।
तस्याग्नेर्मन्दता देहे त्वथवा ग्रहणीगदे ॥२०॥ अर्थ-जिसकी पैरकी नाडी हंसके समान और हाथकी नाडी मैंडकाके समान चले उसके देहमें मंदाग्निहै अथवा संग्रहणी रोगहै ऐसा जानना ॥ २० ॥
भेदेन शान्ता ग्रहणीगदेन निर्वीर्यरूपा त्वतिसारभेदे ।
विलम्बिकायां प्लवगा कदाचिदामातिसारे पृथुता जडा च२१ - अर्थ-संग्रहणीका दस्तहोनेके उपरांत नाडी शांतवेगा होती है अतिसाररोगका दस्तहोनेके उपरांत नाडी सर्वथा बलहीन होजातीहै विलंबिकारोगमें नाडी मैंडकाके तुल्य चलती है इसीप्रकार आमातिसारमें नाडी स्थूल और जडवत होती है ।
विचिकाज्ञानम् । निरोधे मूत्रशकृतोर्विग्रहे त्वितराश्रिताः ।
विषूचिकाभिभूते च भवन्ति भेकवत्क्रमाः ॥२२॥ अर्थ-केवल मल वा केवल मूत्र अथवा मलमूत्र दोनो एसाथ बंद होजावे बा इच्छापूर्वक इनके वेगको रोकनेसैं एवं विचिका रोगमें नाडीकी गति मैंड. काकी चालके समान होती है ॥ २२ ॥
अनाहमूत्रकृच्छ्रे । अनाहे मूत्रकृच्छ्रे च भवेन्नाडीगरिष्ठता।
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