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नाडीदर्पणः । द्वितीयके वाथ तृतीयतुर्ये गच्छन्ति तप्ता भ्रमिवत् क्रमेण १३
अर्थ-एकाहिकज्वरमें नाडी सरलमार्गको त्यागकर क्षणक्षणमें पार्श्वगामिनी होती है तथा द्वितीय, तृतीय (तिजारी ) और चातुर्थनामक विषमज्वरमें उप्ण होकर इतस्ततो धावमाना होती है ॥ १३ ॥
अन्यत्रापि । उष्णवेगधरा नाडी ज्वरकोपे प्रजायते । उद्वेगक्रोधकामेषुभयचिन्ताश्रमेषु च । भवेत् क्षीणगतिर्नाडी ज्ञातव्या वैद्यसत्तमैः१४ अर्थ-गरम और वेगवान् नाडी ज्वरके कोपमें होती है उद्वेग, क्रोध, कामबाधा भय, चिन्ता, और श्रम इनमें नाडी क्षीणगतिवाली होती है अर्थात् मंद मंद गमन करती है ॥ १४ ॥
प्रसङ्गादाह। व्यायामे भ्रमणे चैव चिन्तायां श्रमशोकतः।
नाना प्रभावगमना शिरा गच्छति विज्वरे ॥ १५ ॥ अर्थ-व्यायाम ( दंडकसरत ) करनेसैं, डोलनेमें, चिंता, श्रम, और शोकसैं, एवं ज्वररहित मनुप्यकी नाडी अनेकप्रभावसे गमन करतीहै ॥ १५ ॥
अजीर्णरूपमाह । अजीणे तु भवेन्नाडी कठिना परितो जडा।
प्रसन्ना च द्रुता शुद्धा त्वरिता च प्रवर्तते ॥१६॥ अर्थ-आमाजीर्ण और पक्काजीर्ण दोनोंमें नाडी कठोर और दोनोपार्योंमें जड होती है इसीप्रकार कभी निर्मल निर्दोष तथा शीघ्रवेगवाली होती है ॥ १६ ॥
तत्र विशेषमाह ।। पक्काजीणे पुष्टिहीना मन्दं मन्दं वहेज्जडा।
अमृक्पूर्णा भवेत् कोष्णा गुर्वी सामा गरीयसी ॥१७॥ अर्थ-पक्काजर्णिमें नाडी पुष्टतारहित मंद मंद चलती है । तथा भारी होती है एवं रुधिरकरके परिपूर्णनाडी गरम, भारी होतीहै और आमवातकी नाडी भारी होती है ॥ १७ ॥
लध्वी भवति दीप्तास्तथा वेगवती मता।
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