SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नाडीदर्पणः । द्वितीयके वाथ तृतीयतुर्ये गच्छन्ति तप्ता भ्रमिवत् क्रमेण १३ अर्थ-एकाहिकज्वरमें नाडी सरलमार्गको त्यागकर क्षणक्षणमें पार्श्वगामिनी होती है तथा द्वितीय, तृतीय (तिजारी ) और चातुर्थनामक विषमज्वरमें उप्ण होकर इतस्ततो धावमाना होती है ॥ १३ ॥ अन्यत्रापि । उष्णवेगधरा नाडी ज्वरकोपे प्रजायते । उद्वेगक्रोधकामेषुभयचिन्ताश्रमेषु च । भवेत् क्षीणगतिर्नाडी ज्ञातव्या वैद्यसत्तमैः१४ अर्थ-गरम और वेगवान् नाडी ज्वरके कोपमें होती है उद्वेग, क्रोध, कामबाधा भय, चिन्ता, और श्रम इनमें नाडी क्षीणगतिवाली होती है अर्थात् मंद मंद गमन करती है ॥ १४ ॥ प्रसङ्गादाह। व्यायामे भ्रमणे चैव चिन्तायां श्रमशोकतः। नाना प्रभावगमना शिरा गच्छति विज्वरे ॥ १५ ॥ अर्थ-व्यायाम ( दंडकसरत ) करनेसैं, डोलनेमें, चिंता, श्रम, और शोकसैं, एवं ज्वररहित मनुप्यकी नाडी अनेकप्रभावसे गमन करतीहै ॥ १५ ॥ अजीर्णरूपमाह । अजीणे तु भवेन्नाडी कठिना परितो जडा। प्रसन्ना च द्रुता शुद्धा त्वरिता च प्रवर्तते ॥१६॥ अर्थ-आमाजीर्ण और पक्काजीर्ण दोनोंमें नाडी कठोर और दोनोपार्योंमें जड होती है इसीप्रकार कभी निर्मल निर्दोष तथा शीघ्रवेगवाली होती है ॥ १६ ॥ तत्र विशेषमाह ।। पक्काजीणे पुष्टिहीना मन्दं मन्दं वहेज्जडा। अमृक्पूर्णा भवेत् कोष्णा गुर्वी सामा गरीयसी ॥१७॥ अर्थ-पक्काजर्णिमें नाडी पुष्टतारहित मंद मंद चलती है । तथा भारी होती है एवं रुधिरकरके परिपूर्णनाडी गरम, भारी होतीहै और आमवातकी नाडी भारी होती है ॥ १७ ॥ लध्वी भवति दीप्तास्तथा वेगवती मता। For Private and Personal Use Only
SR No.020491
Book TitleNadi Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Dattaram Mathur
PublisherGangavishnu Krushnadas
Publication Year1867
Total Pages108
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy