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नाडीदर्पणः ।
आप्यायते वपुरिदं हि नृणाममीषामम्भः स्रवद्भिरिव सिन्धुशतैः समुद्रः ॥ ४३ ॥
अर्थ-उन पूर्वोक्त नाडीयोंमें छोटे छिद्रवाली स्वच्छ ७०० सातसौ नाडी है वो सब अन्नरसके वहनेवाली है, उस रसमें संपूर्ण देहका पोषण होताहे जैसे सैंकडों नदियोंके जल समुद्र तृप्त होताहै ॥ ४३ ॥
आपादतः प्रततगात्रमशेषमेषामामस्तकादपि च नाभिपुरः स्थितेन ॥ एतन्मृदङ्ग इव चर्मचयेन नद्वम् कायं नृणामिह शिराशतसप्तकेन ॥ ४४ ॥
अर्थ - नाभिस्थानस्थित सातसौं नाडीन्सें मस्तकसैले पैरोंतक संपूर्ण देह व्याप्त है जैसे मृदंगमें सर्वत्र चर्मकी रस्सी खिचीहुई होती है, उसीप्रकार मनुष्यकी देह इन सातसौं नाडियोंसें बद्ध होरही है ॥ ४४ ॥
सप्तशतानां मध्ये चतुरधिका विंशतिः स्फुटास्तासाम् ॥ rai परीक्षणीया दक्षिणकरचरणविन्यस्ता ॥ ४५ ॥
अर्थ- पूर्वोक्त सातसौं नाडीयोमें २४ चोवीस नाडी मुख्य है, उनमेभी पुरुषके दहने हाथ और पैर में स्थित मुख्य एक नाडीकी परीक्षा करनी चाहिये "चतुरधीका " इसपदके कहने से यह प्रयोजनहे कि धमनी नाडी चोवीस है जैसे लिखाहै ॥ ४५ ॥
तिर्यक्कूम देहिनां नाभिदेशे वामे वक्रं तस्य पुच्छन्तु याम्ये ॥ ऊर्ध्वे भागे हस्तपादौ च वामौ तस्याधस्तात्संस्थितौ दक्षिणौ तौ ॥ ४६ ॥
वक्रे नाडी द्वयं तस्य पुच्छे नाडी इयन्तथा ॥ पञ्च पञ्च करे पादे वामदक्षिणभागयोः ॥ ४७ ॥
अर्थ- मनुष्योंके नाभिदेशमें तिरछा कूर्म ( कछवा ) स्थित है, वांई तरफ उसका मुखहै और दहनी तरफ पूंछ है, ऊपरके भाग में वांईतरफ हाथहै, और नीचे दक्षिण
१ शतानि सप्त यस्तु कथिता याः शरीरिणाम् । संभूयांगुष्ठमूले तु शिरामेकामधिष्ठिता ।
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