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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नाडीदर्पणः । वाग्भटः। रोगमादौ परीक्षेत तदनन्तरमौषधम् ॥ ततः कर्म भिषक् पश्चाज्ज्ञानपूर्व समाचरेत् ॥३॥ अर्थ-वाग्भट ग्रंथमें लिखाहै वैद्यको उचितहै कि प्रथम रोगकी परीक्षा करे रोगजाननेके अनंतर औषधकी परीक्षा करे रोग और औषध दोनों जाननेके पश्चात् ज्ञानपूर्वक अर्थात् सावधानीकेसाथ चिकित्साकरे यानी औषध देव ॥ ३ ॥ लक्षयित्वा देशकालौ ज्ञात्वा रोगवलावलम् ॥ चिकित्सामारभेद्यो यशः कीर्तिमवाप्नुयात् ॥४॥ अर्थ-देश और कालका लक्ष करके और रोगको बली और निलिव जानके जो वैद्य चिकित्साका प्रारंभ करताहै वह यश, और कीर्तिको पाताहै ॥४॥ रुग्णावस्थां ततो नाडी भेषजं पथ्यमेव च ॥ देशं कालञ्च पात्रञ्च यो जानाति स वैद्यराट् ॥५॥ अर्थ-जो रोगीकी अवस्था, नाडी, औषध, पथ्य, देश, काल, और पात्रको जानताहै । उसको वैद्यराज कहतेहै ॥५॥ रोगोंके आठस्थान। रोगाक्रान्तशरीरस्य स्थानान्यष्टौ परीक्षयेत् ॥ नाडी मूत्रं मलं जिह्वां शब्दस्पर्शगाकृतिम् ॥६॥ अर्थ-वैद्य रोगी मनुष्यके आठ स्थानोंकी परीक्षाकरे, जैसे कि नाडीपरीक्षा, मूत्रपरीक्षा, मलपरीक्षा, जिह्वापरीक्षा, शब्दपरीक्षा, स्पर्शपरीक्षा, नेत्रपरीक्षा और रोगीकी आकृतिकी परीक्षा ॥ ६॥ नानाशास्त्रविहीनानां वैद्यानामल्पमेधसाम् ॥ नाड्याधष्टपरीक्षाश्च सुखार्थ प्रभवन्ति हि ॥७॥ अर्थ-अनेक शास्त्र पढनेकरके रहित अल्प वुद्धि वैद्योंके लिये यह नाडी आदि अष्टविधपरीक्षा सुखके अर्थ होवेगी ॥ ७ ॥ आयं तावन्नाडिकाविज्ञानादेव वातपित्तकफजनितानामातङ्कानां साध्यासाध्यकष्टसाध्यसभेदकविज्ञानं सुकरत्वेन भिषग्भिरवाप्यतेऽत एव तावनिरूप्यते ॥८॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020491
Book TitleNadi Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Dattaram Mathur
PublisherGangavishnu Krushnadas
Publication Year1867
Total Pages108
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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