________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kalassagarsun Gyanmandir मं० म. // 18 // खं०१०१ तर, अशचिर्वा शुचिर्वापि गच्छंस्तिष्ठन् स्वपन्नपि ।मत्रैकशरणो विद्वान् मनसैवं समायसेत् / न दोषो मानसे जापे सर्वदेशेपि सर्वदा // 411 // ( मंत्रसिद्धिभांडागारे ) प्रवासी बहुभक्ती च प्रजल्पी नियमारतः॥ नीचसंगाच्च लौल्याच्च पइभिमत्रो न सिध्यति // 492 // (स्त्रीभोग त्यागे महत्फलं देवीभागवते ) मैथुनश्च तदालापं तद्गोष्ठीमपि वर्जयेत् // कर्मणा मनसा बाचा सर्वावस्थासु सर्वदा // 49.3 // सर्वत्र * मैथुनत्यागं ब्रह्मचर्य प्रचक्षते / / राजश्चैव गृहस्थस्य ब्रह्मचर्यमुदाहृतम् // 494 // ऋतुस्नातेषु दारेषु संगतिस्तु विधानतः // संस्कृतायां / सवर्णायामृतुं दृष्ट्वा प्रयत्नतः॥रात्री तु गमनं कार्य ब्रह्मचर्य हरेन्न तत्॥१९५॥(शिवरहस्ये)व्यासाद्यैरपि दुर्घत्तैः कृतः स्त्रीसंग्रहो मुदा॥दुर्लभः | पुरुषाणां तु नित्यमिंद्रियनिग्रहः // 49.6 // विषय यस्तु सर्वेक्यः स्त्रीरूपविषयो महान्॥पुमांस मोहयत्येव विरक्तमपि सत्वरम्॥विषयेत्यो निवृत्तिश्चेजितं तेन न संशयः॥४९.७॥(पुरश्चरणे वणिग्दनधनं वयं शिवरहस्ये)वणिग्दनेन वित्तेन तर्नु यः पोषयिष्यति॥भुक्त्वा स नरक घोरं प्रयात्येव न संशयः // 45.8 // (योगिनीहृदये) // ईश्वर उवाच // सर्वहिंसाविनिर्मुक्तः सर्वप्राणिहिते रतः // सोऽस्मिशास्त्रेधिकारी स्यात्तदन्ये भ्रष्टसाधकाः // 499 // ( कुलार्णवे पंचमखंडे पंचदशोल्लासे )॥देव्युवाच॥ कुलेश श्रोतुमिच्छामि पुरश्चरलक्षणम्॥स्थानाहा रादिभेदेन वद मे परमेश्वर॥५००॥ईश्वर उवाच॥शृणु देवि प्रवक्ष्यामि यन्मा त्वं पारपृच्छसि // तस्य श्रवणमात्रेण मंत्रतत्त्वं प्रकाशते॥ d // 501 // जपयज्ञात्परो यज्ञो नापरोस्तीह कश्चन।तस्माजपेन धर्मार्थकाममोक्षं च साधयेत् // 502 // सर्वपादान् परित्यज्य मंत्रपा दं समाचरेत्॥आब्रह्मजीवे दोषाश्च नियमातिक्रमोद्भवाः // 503 // ज्ञानाज्ञानकताः सर्वे प्रणश्यति यथा प्रिये॥ संसारे दुःखभूयिष्ठे यदी च्छेत्सिद्धिमात्मनः / / 504 // पंचांगोपासनेनैव मंत्रजापी सुखं ब्रजेत्॥मंत्र यंत्र पंजरं च स्तोत्रं नामसहस्रकम् // 505 // पूजा त्रैका ) For Private And Personal Use Only