________________ Shri Mahar Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kalassagasun Gyanmandir ( अगस्त्यसंहितायाम् ) // ग्रहणेऽर्कस्य चंदोर्वा शुचिः पूर्वामुखोषितः // नद्यां समुद्रगाभिन्यां नाभिमात्रोदके स्थितः // स्पर्शाद्विमुक्ति पर्यंत जपेन्मंत्रमनन्यधीः // 195 // (रुद्रयामले ) अपि शुद्धोदकैः स्नात्वा शुचौ देशे समाहितः / यासाद्विमुक्तिपर्यंत जपेन्मंत्र मनन्यधीः // इति कृत्या न संदेहो जपस्य फलभाग्भवेत् // 196 // श्रद्धादेरनुरोधेन यदि जाप्यं त्यजेन्नरः // स भवेद्देवता द्रोही पितृन् सप्त नयेदधः // 197 // अथ होमनिर्णयः // (होमकालः) वसन्तश्चैव पूर्वाहेमध्यढे ग्रीष्म उच्यते // अपराहे भ| ववर्षा शरच्चैवार्द्धरात्रिके // उपो हेमंतकश्चैव संध्यायां शैशिरः स्मृतः // 198 // ( पुरश्चरणचंद्रिकायाम् ) ततो जपदशांशेन / होमं कुर्यादिनेदिने // अथवा लक्षसंख्यायां पूर्णायां होममाचरेत् // 199 // ( अथ होमस्थानं वायवीयसंहितायाम् ) अथानिकार्य वक्ष्यामि कुण्डे वा स्थाण्डिलेपि वा // वेद्यामप्यायसे पात्रे मृन्मये वा नवे शुभे // स्थंडिले वा प्रकुति सुसिद्धैः सिकतैः सितैः // 200 // // (अथ कुंडस्वरूपम् ) चतुरस्रं योनिमर्द्धचन्द्रं व्यत्रं सुवर्तुलम् // षडयं पंकजाकारमष्टास्त्रं तानि नामतः // 201 // सर्वसिद्धिकरं कुंडं चतुरसमुदाहृतम् // पुत्रप्रदं योनिकुंडमर्दैवाभं शुभप्रदम् // 202 // शत्रुक्षयकरण व्यसं वर्तुलं शांतिकर्मणि // छेदमारणयोः कुंडं पडलं पद्मसन्निभम् // पुष्टिदं रोगशमनं कुंडमष्टास्रमीरितम् // 203 // वर्णभेदेन कुंडप्रकारः) विषाणां चतुरस्रं स्याद्राज्ञां वर्तुलमिष्यते // वैश्यानामर्दचन्द्राभं शूद्राणां व्यस्रभीरितम् // चतुरस्रं तु सर्वेषां केचिदिच्छन्ति तांत्रिकाः // 204 // (अथ कुंडप्रमाणं नारदीये) कुंडं तु नारदेनोक्तं हस्तमात्र शुभं मतम् // यावत्कुंडस्य विस्तारः खननं तावदीरितम् // 205 // (हस्तप्रमाणम् ) चतुर्विशत्यंगुलाढ्यं हस्तं तस्य विदो विदुः॥ कर्तुदक्षिणहस्तस्य मध्य 8-4 For Private And Personal Use Only