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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २६१ ) और ध्यान द्वारा यह निश्चय हो जाता है कि कारणवाद पूर्णतः मिथ्या है तब वह अपने मानसिक क्षेत्र का सुचारु ढंग से अतिक्रमण करने में समर्थ हो जाता है । मन को लांघ लेना वह जाग्रतावस्था है जब आत्मा अपने आप से साक्षात्कार कर लेता है। मन के जर्जरित होने का अर्थ 'अहंकार' का सत्वहीन होना है । सीमित मिथ्याभिमान का अन्त होने पर व्याप्त आत्मा का प्रकाश होता है । सीमाबद्ध तथा नाशमान् जीवात्मा परिपूर्ण-तत्त्व की केवलमात्र छाया है । जब इस भ्रान्ति का भूल-आधार ही नष्ट हो जाता है तभी मन का अतिक्रमण हो पाता है। वैसे कारण-कार्य के क्रियमाण होने के लिए काल तथा स्थान के क्षेत्र का होना नितान्त आवश्यक है। जहाँ काल और स्थान की स्थिति अनिश्चित हो वहाँ कारण-कार्य का होना भी संदिग्ध होगा । विशेष काल तथा स्थान के न रहते हुए किसी वस्तु के कारण और कार्य में विश्वास रखना मान्य नहीं हो सकता । जितना अधिक हम इस बात को समझ पायेंगे कि काल और स्थान परिवर्तनशील, क्षणिक, सापेक्ष तथा अवास्तविक हैं उतना अधिक हमें यह मानना पड़ेगा कि गति से सम्बन्धित नियम को ठीक तरह न समझ सकने से ही हमें कारण-कार्य का आभास होता रहता है । ___ श्री गौड़पाद ने यह परिणाम निकाला है कि-"जिस व्यक्ति ने इस भ्रान्ति का मूलोच्छेद कर दिया है वह भावी जन्म का स्वप्न भी न लेगा और न ही अपने स्थूल शरीर का त्याग करने तक वह इस भ्रम द्वारा पीड़ित होगा।" स्वप्न में एक सिंह द्वारा भयभीत हो कर जागने पर मनुष्य कभी यह सोचने का कष्ट नहीं करता कि यदि पाँच मिनट और वह निद्रा से न जागता तो उस सिंह के हाथों उस की क्या दुर्दशा होती। न ही उसे इस बात का खेद होगा कि उस का स्वप्न आगे क्यों न बढ़ा और वह सहसा क्यों जाग उठा । ऐसे ही जिस व्यक्ति का कारणवाद में अन्ध-विश्वास नहीं रहता उसे क्षण-भंगुर जीवन के दुःखों की चोट सहन नहीं करनी पड़ती। . संवृत्या जायते सर्व शाश्वं नास्ति तेन वै। सद्भावेन ह्यजं सर्वमुच्छेदस्तेन नास्ति वै ॥५७॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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