SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 305
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २९० ) यदि हम कारणवाद में विश्वास रखें तो हमें इससे क्या हानि होगी ? श्री गौड़पाद कहते हैं कि जब तक इसमें आस्था बनी रहती है तब तक मनुष्य परिवर्तन, विक्षेप, ससीमता और मृत्यु के बीच भटकता रहता है । अध्यात्मवादियों के सभी प्रयास इस प्रश्न का उत्तर ढूंढने तथा उस तीव्र वेदना से मुक्ति पाने से सम्बन्ध रखते हैं जो स्थूल संसार तथा हमारे मानसिक एवं बौद्धिक क्षेत्र में प्रभुत्व रखती हुई भी हमें चलायमान रखती है । यह अज्ञात आन्तरिक संघर्ष, जो हमें सदा पीड़ित रखता है, आध्यात्मिक अस्थिरता कहलाता है । जब कोई विकसित बुद्धि वाला व्यक्ति पवित्रता एवं बुद्धि की निश्चित स्थिति की प्राप्ति कर लेता है तब उसे इस अस्थिरता का सामना करना पड़ता है । इस श्रेणी के व्यक्तियों की सहायता के लिए उस परम श्रेष्ठ दार्शनिक सिद्धान्त तथा अनुशासन का प्रतिपादन किया गया है जो इन प्रयत्नशीश साधकों को परिपूर्णता प्राप्त करने में सफलता प्रदान करता है । इस स्थिति में इन्हें सुख तथा शान्ति की अनुभूति होती है । जब तक इन साधकों के हृदय में इस आध्यात्मिक पीड़ा की कसक बनी रहती है और ये कारणवाद के बन्धन में फँसे रहते हैं उस समय तक ये (हृदय) संतप्त रहते हैं । इससे पूर्व हम कह चुके हैं कि काल, अन्तर तथा कारणत्व के सीमित क्षेत्र में हो मन गतिमान हो सकता है । मन का गत्ते का क़िला इन्हीं तीन स्थिर चट्टानों पर खड़ा दिखायी देता है । विज्ञान तथा तर्क के विकसित बुद्धि व्यक्ति के लिए इस बात को समझना अत्यन्त सुगम होगा कि काल तथा स्थान परस्पर सापेक्ष एवं परिवर्तनशील हैं; किन्तु कारणवाद की निराधारता को बहुत आसानी से जानने के लिए बुद्धि का वह उपकरण उपयुक्त नहीं है जिसे प्रत्यक्ष संसार के विविध पदार्थों के वीक्ष्ण, विश्लेषण तथा व्यावहारिक ज्ञान के लिए ही तैयार किया गया हो; इस लिए यहाँ आचार्य ने, जाग्रत तथा उत्तेजित बुद्धि वाले व्यक्तियों के सम्मुख यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि कारणवाद वस्तुतः आधार रहित है । जब किसी व्यक्ति को अध्ययन, मनन For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy