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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १२० ) सुख है । इस अनादि मुक्ति को सीमित शब्दों पारा वर्णन करना असंभव है न कश्चिज्जायते जीवः संभवोऽस्य न विद्यते । एतत्तदुत्तमं सत्यं यत्र किंचिन्न जायते ॥४८।। मिथ्याभिमान को अनुभव करने वाले जीवात्मा का कभी जन्म नहीं हुआ । कोई ऐसा कारण नहीं जिससे इस (जीव) की उत्पत्ति हुई हो । यह परमोत्तम सत्य है जो सर्वदा अजन्मा है । इस मंत्र में श्री गोड़पाद के 'प्रजात-सिदान्त' का सार मिलता है । 'प्रजातवाद' के मंत्र से श्री गौड़पाद तथा मुनि वसिष्ठ ने (योग-वासिष्ठ में) इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है । इन दोनों महर्षियों ने वेदान्त की 'प्राचीन' शाखा पर प्रकाश डाला है जब कि भगवान् शंकराचार्य ने वेदान्त की 'नवीन' विचारधारा को सुव्यवस्था की है । 'शंकर' ने पदार्थ मय संसार में 'सापेक्ष वास्तविकता' को माना है। श्री गौड़पाद और महर्षि वसिष्ठ ने वास्तविकता के सर्वोच्च स्तर का कभी परित्याग नहीं किया । हमारे निम्न स्तर तक नीचे आने की बजाय उन्होंने हमें वहाँ पहुँचने का संकेत किया है क्योंकि उनको अलौकिक दृष्टि में हम सब उनका ही स्वरूप हैं। जिस बुद्धिमान् पुरुष ने खम्भे की बास्तविकता को जान लिया है वह उस (खम्भे) में 'भूत' की मिथ्या धारणा करने वाले व्यक्ति को सजग करने में प्रयत्नशील रहता है । श्री गौड़पाद इस दिशा में ही प्रयत्नशील रहे हैं । विशुद्ध चेतन-स्वरूप होते हुए 'चेतना' से परिवेष्ठित यह महानाचार्य सबके हृदय पर आधिपत्य रखते हैं और किसी को अपने से पृथक् अथवा भिन्न नहीं मानते । इस अन्तिम मन्त्र में श्री गौड़पाद के समुच्चय सिद्धान्त का 'सारांश' दिया गया है । उनकी आलोचना का 'सार' यह है कि किसी का जन्म नहीं लेता । यह सिद्धान्त बुढमत के शून्यवादियों के इस विचार के For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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