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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २०४ ) कुछ क्षण के लिए विश्राम करता है और हमारे जागन पर जीवन-रूपी नाटक के रंगमंच पर आकर यह क्षोभ, इच्छा, वासना, उत्कण्ठा प्रादि का खेल पूर्ववत् दिखाने लगता है। परिपूर्ण-ज्ञान को प्राप्त करने के लिए निरन्तर यत्न करके मन को शुद्ध रखना पड़ता है ताकि एकाग्रता के द्वारा इसे उन्नतावस्था में ले जाया जा सके क्योंकि तब यह उस पात्र के समान होगा जो नाटक कम्पनी की नौकरी छोड़ कर फिर रंगमंच पर नहीं आता। ऐसे इस मन में किसी प्रकार का विक्षेप नहीं होता । इस प्रकार हम देखते हैं कि सुषुप्त और आत्मानुभूति की अवस्थानों में हमारे मन की प्रतिक्रिया एक-समान नहीं होती । जब हमारे मन का अस्तित्व नहीं रहता अर्थात् जिस समय यह हमारे वश में आ जाता है तब हमें यह सन्देह हो सकता है कि उस क्षण इसका क्या बनेगा । इस शंका को निवारण करने के उद्देश्य से महान् प्राचार्य यहाँ कहते हैं कि मन की इस अवस्था का अर्थ इसका ब्रह्म में लीन हो जाना है। यह बात हमें पूरी तरह समझ आ जायेगी जब हम इस तथ्य को स्मरण रखेंगे कि मन तो वास्तविक तत्त्व में आरोपमात्र है । जिस तरह सर्प रस्सी में आरोपमात्र है और उसका वास्तविक अस्तित्व कुछ भी नहीं उसी प्रकार मन के स्थिर होने पर हमें अपने यथार्थ स्वरूप का ज्ञान हो जाता है । इसका यह अभिप्राय है कि हमारा मन स्वतः आत्म-तत्त्व में विलीन हो जाता है । भासित होने वाले सर्प का प्रत्येक भाग रज्ज ही तो है। ___मृग-तृष्णा की छाया में हमें लहर, बुद्बुद्, जल, सूर्य का प्रतिविम्ब आदि प्रतीत होते हैं किन्तु उनमें कोई यथार्थता नहीं होती । ऐसे ही इष्टपदार्थ, मन, बुद्धि–यहाँ तक कि सब कुछ—विशुद्ध-चेतन 'ब्रह्म' का ही स्वरूप हैं। जब तक हमारा चंचल मन आत्म-तत्त्व की ज्योति में गतिमान रहता है तब तक हमें माया-रूपी संसार की प्रतीति होती रहती है और हम इसे वास्तविक समझे रहते हैं । जब हम अपने मन का निग्रह कर लेते हैं तब For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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