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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २०३ ) अनुभव को प्राप्त नहीं करता । निद्रावस्था में हमारा मन निश्चय से निष्क्रिय होता है। फिर भी यह अशक्त रहता हुमा अपनी वासनामों को लिये हुए कुछ समय अज्ञान-मग्न रहता है । जब यह (मन) हमारे द्वारा शुद्ध हो कर पूर्ण विवेक से नियंत्रण में लाया जाता है तब यह परमावस्था को प्राप्त कर लेता है । उस समय हमें 'अज्ञान' का ज्ञान नहीं रहता बल्कि 'ज्ञान' से पूरा परिचय हो जाता है । यह अनुभूति नकारात्मक अस्तित्व लिये हुए नहीं बल्कि चेतनायुक्त परम-शान्ति की सूचक होती है । लीयते हि सुषुप्ते तन्निगृहीतं न लीयते । तदेव निर्भयं ब्रह्म ज्ञानालोकं समन्ततः ॥३५॥ सुषुप्तावस्था में मन केवल निष्क्रिय अथवा अज्ञान में डूबा रहता है किन्तु वेदान्त-विहित उपायों से जब इस को वश में लाया जाता है तब यह बात नहीं होती । इस प्रकार गहरी निद्रा में सोये तथा आत्मानुभूत व्यक्तियों के अनुभवों में अन्तर होता है । ज्ञानी का मन तो निर्भय ब्रह्म से तादात्म्य प्राप्त कर लेता है । इस क्षण इसकी एकमात्र यह परिमितता रहती है कि यह (अपने पृथक्-रूप का त्याग कर के) आत्म-स्वरूप को ग्रहण कर लेता है । पिछले मंत्र में केवल यह कहा गया था कि सुषुप्तावस्था में हमारा मन उस परम-स्थिति को प्राप्त नहीं करता जिसकी इसे प्रात्म-साक्षात्कार करते समय अनुभति होती है। ज्ञानी तथा प्रगाढ़ निद्रा में सोये हुए व्यक्ति के मन में जो भेद पाया जाता है उसे इस मंत्र में पूर्ण रूप से समझाया गया है। जिस मनुष्य का मन सुषुप्तावस्था में क्रियमाण नहीं होता उसमें वासनाएँ समायी रहती हैं । उस समय ऐसा मालूम देता है कि यह मशान के बादल के पीछे छिपा हुआ है । यह (मन) उस पात्र के सदृश है जो पर्दे के पीछे बैठा हुमा पाने वाले दृश्य की बाट जोहता है ताकि वह रंगमंच पर फिर पा कर अपना पार्ट कर सके । इस नाट्य-पात्र की तरह परिभ्रान्त मन For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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