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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (११) लथा 'घट' आकाश के दृष्टान्त द्वारा समझा चुके हैं । किसी पड़े व कमरे आदि के भीतर का प्राकाश 'खले' आकाश से किसी प्रकार भिन्न नहीं है। - जीवात्मनोरनन्यत्वमभेदेन प्रशस्यते । ___ नानात्वं निंद्यते यच्च तदेवं हि समंजसम् ॥१३॥ शास्त्रों में जीव तथा प्रात्मा की एकता की प्रशंसा और नाना पदार्थों की कड़ी निन्दा की गयी है; इसलिए अद्वैत ही निश्चय रूप से मान्य हुआ। हमें विवेक एवं तर्क द्वारा यह समझाने के बाद कि नाम-रूप आदि का संसार मिथ्या है और हमारे भीतर वास्तविक-तत्त्व (आत्मा) ही यथार्थ है श्री गौड़पाद अब इस महान सिद्धान्त की पुष्टि में शास्त्रीय मत दे रहे हैं। आर्य किपी महान सिद्धान्त को अपने दर्शन का अंग कभी स्वीकार नहीं करते थे । वे दर्शन का मूल्यांकन उसके व्यावहारिक महत्व को अनुभव करके किया करते थे ताकि उसके समुचित उपयोग से मनुष्य उसका प्रतिपादन करने वाले आचार्य द्वारा बताये हुए जीवन-ध्येय की प्राप्ति कर सकें। उनके विचार में ऐसे सिद्धान्त की शास्त्रों द्वारा पुष्टि होनी परमावश्यक थी। यहाँ ऋषि हमें बता रहे हैं कि उनके सिद्धान्त केवल उनकी बुद्धि की उपज नहीं बल्कि महान ऋषियों के मत पर आधारित हैं। बहदारण्यकोपनिषद' में कहा गया है कि-नेहनानास्ति किंचन--यहाँ किसी प्रकार की विभिन्नता नहीं है। दर्शन-शास्त्र में केवल निन्दा अथवा आपत्ति करना एक लाभप्रद उपाय नहीं समझा जाता । जब तक इसकी पुष्टि में अनुकल युक्तियाँ और सन्तोषप्रद सुझाव न दिये जायं तब तक उस (सिद्धान्त) को समालाचना पूर्ण रूप से नहीं हो पाती । बृहदारण्यक उपनिषद् में दष्ट-पदार्थों की विविधता की अन्धाधुन्ध निन्दा नहीं की गयी है बल्कि 'जीव' तथा प्रात्मा के एकत्व की भी पुष्टि की गयी है । यहाँ आत्मा का प्रयोग 'ब्रह्म' (समष्टि) द्वारा किया गया है। महर्षि वाजवलय के सन्दों में नानात्व की निविचत उपसे निन्दा For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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