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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १७८ ) आचार्य को यह कहना पड़ा कि वास्तविक दिखायी देने वाले ये आवरण 'आत्मा' में आरोपमात्र हैं। पिछले मन्त्र में जिस 'संघात' का उल्लेख किया गया है वह इन आवरणों के मेल से ही बनता है; अतः उनका व्यक्तिगत अस्तित्व सभव नहीं। 'चेतना' उनको अपना उपकरण बनाकर निज गौरव का प्रदर्शन करती है। यह कहना प्रयुक्त है कि उन आवरणों द्वारा आत्मा को सीमाबद्ध किया जा सकता है । भला सूक्ष्म को स्थूल क्या सीमित रख सकता है ? आत्मा को चारदीवारी में बन्द रखना सर्वथा असंभव है। कारागार में मनुष्य के शरीर को बन्द किया जा सकता है न कि उसके विचारों को । स्थूल को स्थूल के भीतर रखना सम्भव है न कि सूक्ष्म को । अतः यह कहना किविशुद्ध परम-सत्ता (आत्मा) शरीर, मन तथा बुद्धि द्वारा मावेष्ठित रखी जा सकती है एक अप्राकृतिक बात है। इस अध्याय के तीसरे मन्त्र में कहा जा चुका है कि परम-जीव (आत्मा) आकाश की भांति सर्व-व्यापक समरूप और निलिप्त है । वहाँ हमने इस दष्टान्त के रहस्य को विस्तारपूर्वक समझाया था । द्वयोद्वयोर्मधुज्ञाने परं ब्रह्म प्रकाशितम् । पृथिव्यामदरे चव यथाऽऽकाशः प्रकाशितः ॥१२॥ पृथ्वी मे पाय जाने वाले (व्याप्त) तथा हमारे भीतर (पेट में) रहने वाले अाकाश को, चाहे अलग-अलग बताया गया है, ब्रह्म में भी दिखाया जा सकता है । 'मधु-ब्राह्मण' में इसको आध्यात्मिक तथा आधिदैविक कहा गया है । ___ इसी व्याख्यान-माला में हमने उपनिषदाचार्यों द्वारा प्रतिपादित और महान् वेदान्त-शास्त्र द्वारा समर्थित इस तथ्य पर पूर्ण प्रकाश डाला था कि समष्टि हो व्यष्टि है । 'बृहदारण्यक उपनिषद्' में, भी 'समष्टि' तथा 'व्यष्टि' की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि 'व्यक्ति' तथा 'विराट' दोनों अभिन्न हैं । इस उपनिषद् में, विशेषतः 'मधु' ब्राह्मण में, आत्मानुभूति को 'प्राध्यात्मिक' और अनुभूत पदार्थ (क्षेत्र) को 'प्राधिदैविक' कहा गया है। व्यक्तिविशेष में वही सत्ता है जो ब्यष्टि में व्याप्त है । इसी भाव को हम 'व्याप्त' For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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