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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १६५ ) गुण नहीं पाया जाता । इन तीन भेदों को क्रमशः 'सजातीय', 'विजातीय' और 'स्वजातीय' कहा जाता है । यदि इसपरम-तत्त्व में इन तीन भेदों की विद्यमानता हो तो यह नाशमान तथा परिमित हो जायेगा। इसलिए ऋषि ने विशेष तौर पर इस शब्द (सम) का उपयोग करके यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि प्रात्म-सत्ता सनातन एवं सर्व-व्यापक है । यदि हम इस तथ्य को स्वीकार कर लें तो यह पूछा जा सकता है कि हम मर्त्य प्राणी अपने चारों ओर स्थल पदार्थमय संसार को किस प्रकार देखते रहते है । इस का उत्तर है कि यह (संसार) सत्य-सनातन का ही स्वरूप है । विविध नाम-रूप केवल हमारे मन का मिथ्या स्वप्नमात्र हैं । परमात्मतत्त्व के सनातन एवं सर्व-व्यापक होने के कारण विविध नाम-रूप वाला मंसार सारहीन है क्योंकि इस (संसार) का प्रत्यक्ष होना केवल हमारे नटखट मन के कारण प्रतीत होता है । इस भाव को इन शब्दों में बड़ी सुन्दरता से समझाया गया है कि--"यह असंख्य नाम-रूप में व्यक्त प्रतीत होता है।" आत्मा ह्याकाशवज्जीवैर्घटाकाशैरिवोदितः । घटादिवच्च संघातर्जाता वेतन्निदर्शनम् ॥३॥ आकाश के सदृश प्रात्मा की, जो विविध जीवात्मानों में व्यक्त होता है, 'घट' प्रकाश स तुलना की का सकती है । जिस तरह घटाकाश की सृष्टि बृहद् एवं व्याप्त आकाश स होती है वैसे ही विविध नाम-रूप की रचना परम सत्ता से होती कही जाती है । स्थूल संसार क सम्बन्ध में यह उदाहरण दिया जाता है । ___ सर्व-व्यापक सत्ता (परमात्मा) और पृथक् सत्ता (जीव) के पारस्परिक सम्बन्ध को समझने के लिए वेदान्त में 'व्यापक आकाश' तथा 'घटाकाश' का प्रसिद्ध उदाहरण दिया जाता है । समूचे वेदान्त-दर्शन के अनुपम पाख्यानों में यह एक सुन्दर उदाहरण है। आत्मा की उपमा 'आकाश' से इसलिए दी गयी है कि इन दोनों में कुछ बातों में निश्चित समानता पायी जाती है । जब हम आत्मा की आकाश से तुलना करते हैं तब हमारा प्रयोजन आकाश में स्थित विभिन्र पदार्थों For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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