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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १६४ ) नग्न किया जा रहा है; भला इस अस्थिर तथा संघर्ष-पूर्ण वातावरण में क्या 'उपासना' किसी प्रकार सहायक हो सकेगी ? इस समस्या पर महषि व्यास ने यथोचित विचार किया जिसके फलस्वरूप पुराणों में भक्तिमार्ग की व्यवस्था की गयी। यहाँ श्री गौड़पाद ने प्राचीन 'उपासना' शब्द का उपयोग किया है किन्तु इसका अर्थ भक्ति एवं पाराधना है । अतो वक्ष्याम्यकार्पण्यमजाति समतां गतम् । यथा न जायते किंचित् जायमानं समन्ततः ॥२॥ अब मैं उस 'ब्रह्म' की व्याख्या करूँगा जो असीम, अजात और समान है और जो वस्तुतः किसी का आदि-स्रोत नहीं है, यद्यपि वह असख्य नाम-रूप से व्यक्त होता प्रतीत होता है। ___इस मंत्र में श्री गौड़पद ने जिन कारणों का उल्लेख किया है उनकी दृष्टि में साधक को असीम परम-तत्व के विषय में कुछ बताया जा रहा है । जहाँ तक हमारी विचार-शक्ति उड़ सकती है वहाँ तक हमें केवल उस चेतना का अनुभव होता है जो हमारे मन एवं बद्धि के उपकरण द्वारा ग्राह्य है । अपने दैनिक जीवन में हम विशुद्ध चेतन-शक्ति को अनुभव नहीं कर सकते क्योंकि स्थूल आवरणों से संपर्क स्थापित होने के कारण हमारी अनुभूति के लिए यह (विशुद्ध चेतना) उपलब्ध नहीं होती। लेशमात्र संपर्क होने पर भी हमारे मन में 'अहंकार' की एक उत्तुग पर्वतमाला प्रा खड़ी होती है । जहाँ 'अहंकार' है वहाँ वास्तविक स्वरूप दिखायी नहीं दे सकता । हम पहले यह बता चुके हैं कि शरीर की सत्ता को मानते हुए जब हम मन तथा बुद्धि की दूरबीन में से बाहिर देखते हैं तब हमें पदार्थमय संसार प्रत्यक्ष दिखायी देता है । स्वप्न में हमें केवल पदार्थमय संसार का ज्ञान होता है । जब हम केवल विशुद्ध चेतना का अनुभव करते हैं तब हमें अपने भीतर अथवा बाहिर उस अजात तथा एकरूप सत्ता का ही अनुभव होने लगता है जो सर्वदा समान-रूप से रहती है। 'सम' का यहाँ पर यह अर्थ किया गया है कि परम-तत्त्व सम-रूप तथा सर्व-व्यापक है । इससे यह समझना चाहिए कि यह (आत्मा) एकाकी है अर्थात् इसके अनुरूप अथवा प्रतिरूप और कोई नहीं तथा इसमें कोई विशेष For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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