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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस प्रकार कर्म, भक्ति तथा अन्य धर्म-मार्ग विशेष समय तक आवश्यक होते हैं क्योंकि इनमें सफल होने के बाद इनसे ही चिपटे रहना एक अक्षम्य अपराध होगा । प्रस्तुत मत्र में उन साधकों को चेतावनी दी गयी है जो भ्रान्तिपूर्ण प्रासक्ति के कारण अपने प्राम्भिक साधन का परित्याग कर के उच्च कोटि के अभ्यास को नहीं अपनाते । श्री गौड़पाद ने निज स्वतंत्र विचार से इस कान्तिपूर्ण सिद्धान्त का प्रतिपादन नहीं किया। इसकी पुष्टि में उपनिषदों के अनेक हवाले दिये जा सकते हैं जो निर्भयता से यह घोषणा करते है कि-'जिसकी आप उपासना करते हैं वह सत्य-तत्त्व नहीं है।' ____ जिस तर्क-शास्त्र में 'अंशरूप' भक्त को 'पूर्ण' परमेश्वर की शरण में उपस्थित होने का निर्देश दिया जाता है और जिस भक्त को पदार्थमय संसार में ही भगवान् के दर्शन होते हैं उस (शास्त्र) में वास्तविक वैपरीत्य का पाया जाना कोई असंभव बात नहीं । यदि परमात्म-तत्त्व के दष्ट-संसार में ही दर्शन होते हैं तो भला वह साधक उस परम-तत्त्व के बिना और क्या हो सकता है। सृष्टि के इस सिद्धान्त को मान लेने के बाद किसी भक्त के लिए परमात्मा को अपने से भिन्न मानना विरोध-भाव को प्रकट करना होगा क्योंकि उसके कथन एव श्रवण में जो अन्तर पाया जायेगा वह उसके अपूर्ण भावों का ही प्रतिबिम्ब होगा । वर्तमान अध्याय के सर्व-प्रथम मंत्र में इसी विपरीत-भाव की निन्दा गयी है। __ वेदान्त-मार्ग तो विवेक-पूर्ण विचारों को पुष्टि देता है । इस मार्ग पर चलने वाला साधक विवेक द्वारा मन एवं बुद्धि का अतिक्रमण करके अपने भीतर प्रात्मा को खोज लेता है । अविवेक से हमें कुछ भी प्राप्त नहीं होता; इसलिए एक सच्चा वेदान्ताचार्य सबसे पहले ज्ञान-मार्ग को ग्रहण करने वाले साधकों को यह परामर्श देता है कि उन्हें उचित ढंग से विचार करने का दृढ़ अभ्यास करना चाहिए । इस कारण श्री गौड़पाद यहाँ बलपूर्वक कहते हैं कि इस प्रकार की धारणा वाला विद्यार्थी 'कृपण' है। 'कृपण' का अर्थ कंजूस भी है । ऐसा अध्यात्मवादी कंजूस कहलाता है क्योंकि वह अपने मन को इतना उदार नहीं बनाता जिससे उसकी परिषि में सब कुछ प्राजाए । वह इस कारण कंजूस समझा जाता है कि अपने ममत्व For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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