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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १२२ ) भीतरी तथा बाहरी भावों का अलग-अलग प्रकाश होता है । (जिस वस्तु का) हमें जितना ज्ञान होता है (उस वस्तु की) उतनी ही स्मृति रहती है । ___अब प्रश्न यह उठता है कि यदि हमारे बाह्य-संसार एवं भीतरी जगत् की सभी वस्तुएँ कोरी कल्पना हैं ता इस (कल्पना) का आदि-स्रोत क्या हुआ? ऐसा दिखायी देता है मानो शंका करने वाला व्यक्ति वेदान्त की इस शक्ति का समर्थन करता है कि जाग्रतावस्था के संसार को हम उतना ही महत्त्व दे सकते हैं जितना स्वप्न-जगत् को । अब यह पालोचक वेदान्त के दृष्टिकाण को समझने का यत्न कर रहा है और इस तरह प्रश्न करता है-“हे वेदान्तो ! जैसा आप कहते हैं, यदि हमारे भीतर तथा बाहर के दृष्ट-पदार्थ कल्पना के बिना और कुछ नहीं हैं तो इनका आदि-स्रोत क्या हुआ ? यह केवल मन नहीं है क्योंकि यह तो निष्प्राण एवं निष्क्रिय जड़-पदार्थ है। यदि हम 'आत्मा' को इसका उद्गम मानें तो यह भी अयुक्त होगा क्योंकि यह (आत्मा) तो विशुद्ध ज्ञान है और इस (ज्ञान) में मिथ्यात्व का अस्तित्व नहीं रह सकता।" इस शंका का समाधान करते हुए श्री गौड़पाद कहते हैं कि 'आत्मा' से 'जीव-भावना' का पृथकत्व कल्पनामात्र है । जीवात्मा पृथकता का भाव लिये प्रकट होता है । इसके बाद मन की उत्पत्ति हुई और तब मन की चेतना अपने विचार-धारा रूपी तड़ाग में प्रतिबिम्बित हुई । अब जीवात्मा, जो वास्तविक दिखायी देती है, अपने प्राचार और व्यवहार को उस प्रतिबिम्ब के उपकरण 'मानसिक स्थिति) के अनुसार बदल देता है । झोल-रूपी मन में प्रतिबिम्बित होने वाला 'जीव' कर्ता तथा उपभोक्ता होता है । यही दुःख सहन करता तथा इससे मुक्ति पाता है और यह 'जीव' ही साधक और 'सिद्ध' की पदवि प्राप्त करता है । जब इस जोव-भावना का आरोप आत्मा में होता है तो इससे अनेक प्रकार का भ्रम हो जाता है और यह भ्रान्ति-पूर्ण आवरण हमें अपने वास्तविक स्वरूप से छिपाये रखता है । परिणामत: यह विमूढ़ For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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