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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 52 मतिज्ञान। (पंचा.४१) आभिणिसुदोधिमणकेवलाणि। (पंचा.४१) आम पुं दि] कच्चा, अपक्व, अग्निसंस्कार से रहित। पक्केसु अ आमेसु । (प्रव.चा.ज.वृ.२७) आयत्तण वि [आत्मत्व आत्मत्व, आत्मपना, आत्मस्वरूप। (बो.५८) -गुण पुं न [गुण] आत्मत्व गुण। (बो.५८) एवं आयत्तणगुणपज्जत्ता। (बो.५८) आयदण न [आयतन] आश्रयस्थान, शरण। (बो.५,भा.१३२) पंचमहव्वयधारा, आयदणं महरिसी भणियं। (बो.६) आयण्ण सक [आ+कर्णय] सुनना। आयण्णिऊण (सं.कृ.भा.१३७) आयण्णिऊण जिणधम्म। आयरिय पुं [आचार्य] आचार्य। पंचाचारसमग्गा, पंचिंदियदंतिदप्पणिद्दलणा। धीरा गुणगंभीरा, आयरिया एरिसा होति। (निय.७३) जो पंचाचारों से परिपूर्ण, पंचेन्द्रिय रूपी हस्ती को चूर करने वाले, धीर, वीर गुणों में गंभीर हैं, वे आचार्य हैं। आचार्यों को पंचपरमेष्ठियों में लिया गया है। अरुहा सिद्धायरिया, उज्झाया साहू पंचपरमेट्ठी। (मो.१०४) -परंपर पुंन [परम्पर आचार्य परम्परा, आचार्यों की अवच्छिन्न धारा। सुत्तम्मि जं सुदिळं, आइरियपरंपरेण मग्गेण। (सू.२) -परंपरागद वि [परम्परागत आचार्य परम्परा से आया हुआ। एसा आयरियपरंपरागदा एरिसी दु सुई। (स.३३७) आयरिय वि [आचरित] आचरण किया जाना। (चा.३१) For Private and Personal Use Only
SR No.020450
Book TitleKundakunda Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherDigambar Jain Sahitya Sanskriti Sanskaran Samiti
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size9 MB
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