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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 37 सबसे कम। 3. वि [अपर जिससे अच्छा अन्य नहीं। -सावय पुं [श्रावक उत्कृष्ट श्रावक। (सू.२१) दुइयं च उत्तलिंगं उक्किटं अवरसावयाणं च। अवरट्ठिया स्त्री [दे] आर्यिका। (द.१८) अवरट्ठियाण तइयं । अवराह पुं [अपराध] अपराध थेयाई अवराहे कुव्वदि। (स.३०१) अवराहे (द्वि.ब.स.३०२) अवरूवरुइ वि [अपरूपरुचि] दूसरे के प्रति ईर्ष्या । (लिं.१३) अवलंविय वि [अवलम्बित] लटकता हुआ। (बो.५०) अवलोग सक [अव+लोक्] अवलोकन करना, देखना। (निय.६१) अवलोगंतो (व.कृ.निय.६१) अवलोयभोयण न [अवलोकभोजन] आलोकित भोजन, अहिंसाव्रत की एक भावना का नाम। (चा.३२) वयगुत्ती मणगुत्ती, इरियासमिदी सुदाणणिखेवो। अवलोयभोयणाए अहिंसए भावणा होति।। (चा.३२) अववद् सक [अप+वद्] निंदा करना। (प्रव.चा.६५) अववदि सासणत्थं, समणं दिट्ठा पदोसदो जो हि। अवस वि [अवश] अपराधीन, स्वतंत्र । (निय.१४२,१४३) अवसत्त वि [अवसक्त] लीन, तन्मय। (प्रव.चा.७३) अवसप्पिणी स्त्री [अवसर्पिणी] अवसर्पिणी काल विशेष, दशकोडाकोडि सागरोपम-परिमित काल, जिसमें सभी पदार्थों के गुणत्व गुणवत्ता में क्रमशः हानि होती है। (द.२७) For Private and Personal Use Only
SR No.020450
Book TitleKundakunda Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherDigambar Jain Sahitya Sanskriti Sanskaran Samiti
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size9 MB
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