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विवरीयाभिणिवेसविवज्जियसद्दहणमेव सम्मत्तं। अभित्थुय वि [अभिष्टुत] स्तुत, वंदनीय, पूजित। (ती.भ.६) अभिभूय वि [अभिभूत पराभूत, तिरस्कृत, पराजित, अपना-सा कर। (प्रव.३०, प्रव.जे.२५) रदणमिह इंदणीलं, दुद्धज्झसियं जहा सभासाए । अभिभूय तं पि दुद्धं, वदि तह णाणमत्येसु । अभिरद वि [अभिरत] तल्लीन, अभिरत अनुरक्त। अभिवंद सक [अभि+वंद्] प्रणामकरना, नमस्कार करना
अभिवंदिऊण (सं.कृ.पंचा.१०५) अभूदत्थ वि [अभूतार्थ] असत्यार्थ। (स.११) ववहारोडभूयत्थो,
देसिदो दु सुद्धणयो। अभूदपुब्ब वि [अभूतपूर्व] किसी काल में समाप्त नहीं होने वाला, पहले कभी न होने वाला। (पंचा.२०) तेसिमभावं किच्चा अभूदपुवो हवदि सिद्धो। (पंचा.२०) अमग्गय वि [अमार्गक] अमार्ग, कुमार्ग, मिथ्यामार्ग। (सू.१०) एक्को वि मोक्खमग्गो, सेसा य अमग्गया सबेअमग्गया (प्र.ब.सू.१०) अमणुण्ण वि [अमनोज्ञ] अमनोज्ञ, असुन्दर, कुरूप। (चा.२९)
अमणुण्णे य मणुण्णे, सजीवदव्वे अजीवदब्बे य । (चा.२९) अमय पुं [अमृत] 1. मुक्ति, मोक्ष। (स.३०७) -कुंभ पुं [कुम्भ] अमृतकलश। (स.३०७) 2. वि [अमय] विकार रहित,अकृत्रिम,स्वभावसिद्ध। (पंचा २२) अमया अत्थित्तमया कारणभूदा हि लोगस्स।
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