SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 32 विवरीयाभिणिवेसविवज्जियसद्दहणमेव सम्मत्तं। अभित्थुय वि [अभिष्टुत] स्तुत, वंदनीय, पूजित। (ती.भ.६) अभिभूय वि [अभिभूत पराभूत, तिरस्कृत, पराजित, अपना-सा कर। (प्रव.३०, प्रव.जे.२५) रदणमिह इंदणीलं, दुद्धज्झसियं जहा सभासाए । अभिभूय तं पि दुद्धं, वदि तह णाणमत्येसु । अभिरद वि [अभिरत] तल्लीन, अभिरत अनुरक्त। अभिवंद सक [अभि+वंद्] प्रणामकरना, नमस्कार करना अभिवंदिऊण (सं.कृ.पंचा.१०५) अभूदत्थ वि [अभूतार्थ] असत्यार्थ। (स.११) ववहारोडभूयत्थो, देसिदो दु सुद्धणयो। अभूदपुब्ब वि [अभूतपूर्व] किसी काल में समाप्त नहीं होने वाला, पहले कभी न होने वाला। (पंचा.२०) तेसिमभावं किच्चा अभूदपुवो हवदि सिद्धो। (पंचा.२०) अमग्गय वि [अमार्गक] अमार्ग, कुमार्ग, मिथ्यामार्ग। (सू.१०) एक्को वि मोक्खमग्गो, सेसा य अमग्गया सबेअमग्गया (प्र.ब.सू.१०) अमणुण्ण वि [अमनोज्ञ] अमनोज्ञ, असुन्दर, कुरूप। (चा.२९) अमणुण्णे य मणुण्णे, सजीवदव्वे अजीवदब्बे य । (चा.२९) अमय पुं [अमृत] 1. मुक्ति, मोक्ष। (स.३०७) -कुंभ पुं [कुम्भ] अमृतकलश। (स.३०७) 2. वि [अमय] विकार रहित,अकृत्रिम,स्वभावसिद्ध। (पंचा २२) अमया अत्थित्तमया कारणभूदा हि लोगस्स। For Private and Personal Use Only
SR No.020450
Book TitleKundakunda Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherDigambar Jain Sahitya Sanskriti Sanskaran Samiti
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy