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निजरूपमय। अप्पाणमओ जीवो। (स.९२) (हे. पुंष्यन आणो राजवच्च ३/५६) इस सूत्र से अप्प में आण आदेश विकल्प से होता है। अतः अप्प या अप्पाण इन दोनों शब्दों के रूप अकारान्त पुंलिङ्ग की तरह चलेंगे। अप्पिला वि दे] तुच्छ, अनादरणीय। (शी.१७) दुस्सीला अप्पिला लोए। अफल वि [अफल] निष्फल, निरर्थक। (प्रव. जे.२४, प्रव. चा. ७२) अफले चिरंण जीवदि। (प्रव.चा.७२) किरिया हि णात्थि अफला, धम्मो जदि णिप्फलो परमो। (प्रव.जे.२४) अबंध/अबंधण वि [अबन्ध] अबन्ध, बंधयुक्त नहीं। (स.१७०, निय.१७२) अबंभ न [अब्रह्म] मैथुन। (भा.९८) -चारी वि [चारिन्] अब्रहाचारी, ब्रह्मचर्य से रहित। (स.३३७) -चेर वि [चर्य] अब्रह्मचर्य। (स.२६३) -विरइ वि [विरति] मैथुन से विरत। (चा.३०) अवंभु न [अब्रह्म, अपभ्रंश] मैथुन, कुशील। (लिं.७)अबंभु लिंगिरूवेण। अबब वि [अबद्ध नहीं बंधे हुए, बंधनरहित। कम्मं बद्धमबद्धं । (स.१४२) -पुट्ठ वि [स्पृष्ट] नहीं बंधे हुए स्पर्शित। (स.१५,
१४१) अबद्धपुढें हवइ कम्मं । (स.१४१) अभंतर न [अभ्यंतर] भीतर, अन्तरंग। (भा.३,४३,४९) गंथं अअंतर धीरं। (भा.४३) डहिओ अमंतरेण दोसेण। (भा.४९)
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