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होदि। -वियप्प पुं [विकल्प] आत्मविकल्प, अपने में विकल्प। (स.९४,९५) अपवियप्पं करेइ कोहो हं। (स.९४) अप्पवियप्पं करेदि धम्माई। (स.९५) -समभाव पुं [समभाव] आत्म समभाव। (मो.५०) सो हवइ अप्पसमभावो। (मो.५०) -संकप्प पुं संकल्प] आत्मसंकल्प, आत्मचिंतन। (मो.५) अंतरप्पा हु अप्पसंकप्पो। -सरूव वि [स्वरूप] आत्म-स्वरूप, आत्म-सदृश। (निय. ११९,१६९) -सहाव पुं [स्वभाव] आत्म-स्वभाव। (निय.१४७) -हिय न [हित] आत्मरहित, आत्म-कल्याण। (भा.१३१) तुमं कुणहि अप्पहियं । अप्पग/अप्पय पुं [आत्मक] 1. जीव द्रव्य, आत्मा। (प्रव.७९,स.१८६) सो अप्पगं सुद्धं । 2. वि [आत्मक] स्वकीय, निजीय, अपना। (प्रव.८९) अप्पगं (द्वि.ए.पंचा.१५८) अप्पणो (द्वि.ब.प्रव.९०) अप्पणा (तृ.ए.स.२५३) अप्पणो (च. प.ए.स.२९३, प्रव.७) इच्छदि जदि अप्पणो अप्पा। (प्रव.९०)। अप्पट्ठपसाधग वि [आत्मार्थप्रसाधक आत्मीक स्वभाव साधने वाला। (पंचा.१४५) अप्पट्ठपसाधणो हि अप्पाणं। (पंचा.१४५) अपडिकम्म वि [अप्रतिकर्मन् संस्कार रहित,सम्हालने या सजाने
की क्रिया रहित। (प्रव.चा.५,स.ज.वृ.३०८) अप्पडिकम्मं हवदि लिंग। (प्रव.चा.५) -त्त वि [त्व ममत्वभाव की क्रिया से रहित। (प्रव.चा.२४) अप्पडिकुट्ठ वि [अप्रतिकुष्ट] अनिन्दित। (प्रव.चा.२३)
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