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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 325 सम्मत्तपहुदिभावा। (निय.९०) -रयणभट्ट वि [रत्नभ्रष्ट] सम्यक्त्वरूपी रत्न से भ्रष्ट। सम्मत्तरयणभट्टा। (द.४) -विरहिय वि [विरहित] सम्यक्त्व से रहित। (द.५) सम्मत्तविरहियाणं | (द.५) -विसुद्ध वि [विसुद्ध] सम्यक्त्व से विशुद्ध। वयसम्मत्त विसुद्धे। (बो.२५) -सलिलपवह वि [सलिल-प्रवह] सम्यक्त्व जल से प्रवाहित। सम्मत्तसलिलपवहे। (द.७) । सम्मइंसण न [सम्यग्दर्शन] सम्यग्दर्शन। (द.३३, बो.४०) सम्माइट्ठि/सम्मादिट्ठि स्त्री [सम्यग्दृष्टि] सम्यग्दृष्टि। (स.२३०, मो.१४, भा.३१) सम्माइट्ठी हवइ जीवो। (स.११) सम्मूह सक [समा+इ] इकट्ठा करना, एकत्रित करना। सम्मूहदि रक्खेदि य। (लिं.५) सय अक [शी स्वप्] सोना, शयन करना। (भा.११३) सय वि [स्वक] निजी, आत्मीय। (स.३६१-३६३) जीवो विसयेण भावेण। (स.३६२) सयं अस्वयं आप, निज। (पंचा.७८, स.९१, प्रव.५५) -अप्पा पुं [आत्मन्] स्वयं आत्मा, स्वयं अपना। अह सयमप्पा परिणमदि। (स.१२४) -एव अ [एव] स्वयं ही, अपने आप ही। भूदो सयमेवादा। (प्रव.१६) -भु पु [भू] ब्रह्मा, स्वयं उत्पन्न। (प्रव.१६) हवदि सयंभुत्ति णिद्दिट्ठो। सयण न [शयन] शय्या, विस्तर। (प्रव.चा.१६, बो.४५, द्वा.३) हिरण्णसयणासणाइ छत्ताई। (बो.४५) सयल वि [सकल] सम्पूर्ण,पूरा,सब,समस्त। (पंचा.७५, निय.५, For Private and Personal Use Only
SR No.020450
Book TitleKundakunda Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherDigambar Jain Sahitya Sanskriti Sanskaran Samiti
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size9 MB
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