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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 317 (पंचा.१६३,प्रव.६२, स.२७५,भा.८४,चा.१८) सद्दहदि ण सो समणो। (प्रव.९१) सद्दहदि (व.प्र.ए.स.१७) सद्दहमाणो (व.कृ.प्रव.चा.३७) सद्दहेह (वि. आ.म.ब.भा.८७,सू.१६) सद्दहेदव्व (वि.कृ.स.१८) सद्दहण न [श्रद्धान] श्रद्धा, विश्वास। (पंचा.१०७, प्रव.चा.३७, निय.५१, मो.९१) सद्दहणादो हवेइ सम्मत्तं। (निय.५) सद्दिढि स्त्री [सद्दृष्टि] सम्यग्दृष्टि। (स.२३२, सू.५) जो मनुष्य जिनेन्द्र द्वारा कथित सूत्र के अर्थ को जीव,अजीव आदि बहुत प्रकार के पदार्थों को तथा हेय-उपादेय तत्त्व को जानता है, वह वास्तव में सम्यग्दृष्टि है। (सू.५) सखा स्त्री [श्रद्धा] आदर, सम्मान। सुदंसणे सद्धा। (चा.१४) सपज्जय वि [सपर्याय] पर्याय सहित। सपज्जयं दव्वमेकं वा। (प्रव.४८) सपदेसत्त वि [सप्रदेशत्व प्रदेशपने से सहित। अत्थित्तं सपदेसत्तं। (निय.१८१) सपयत्य वि [सपदार्थ] पदार्थ सहित। (पंचा.१७०) सपर पुं [स्व-पर] 1.अपना और दूसरा। (निय.१७१, बो.९) 2.पुं [सपर] पराधीन। सपरं बाधासहिदं । (प्रव.७६) सपरावेक्ख [सपरापेक्ष] दूसरे की अपेक्षा से सहित । (निय.१५, मो.९३) सप्पडिवक्स वि [सप्रतिपक्ष प्रतिपक्ष से युक्त, विरुद्ध सहित। सप्पडिवक्खा हवदि एक्का। (पंचा.८) For Private and Personal Use Only
SR No.020450
Book TitleKundakunda Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherDigambar Jain Sahitya Sanskriti Sanskaran Samiti
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size9 MB
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