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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 305 संजमतवसंजुदो विगदरागो। (प्रव.१४) संजोग पुं [संयोग] संबंध,मेल मिलाप-मिश्रण। (निय १०२, भा.५९, स.४२) अवरे संजोगेण दु । (स.४२) -लक्खण पुन [लक्षण] संयोग लक्षण । (निय.१०२, भा.५९) सव्वे संजोगलक्खणा। (निय.१०२) । संठव सक [सं+स्थापय्] स्थापना करना। समभावे संठवित्तु परिणाम। (निय.१०९) संठवित्तु (सं.कृ.) संठाण न [संस्थान नाम कर्म विशेष, जिसके उदय से शरीर का आकार होता है, आकार, आकृति। (स.६०, पंचा.४६, प्रव.जे.६०,निय.४५, भा.६४) ववदेसा संठाणा। (पंचा.४६) संढ पु [शण्ढ] नपुंसक,हिजड़ा। पसुमहिलसंढसंग। (बो.५६) संत वि शान्त] 1.शमयुक्त, क्रोध रहित। (बो.२६,५०,प्रव.चा.७२) अवलंबियभुयणिराउहा संता। (बो.५०) -भाव पुं [भाव शान्तभाव हवेइ जदि संतभावेण । (बो.२६) 2. पुं [सान्त] अन्त सहित। (पंचा.५३) संतत वि सिंतत अविच्छिन्न, अखण्डित। हिंसा सा संतत्तिय त्ति मदा। (प्रव.चा.१६) संतिपुं [शान्ति] शान्तिनाथ, सोलहवें तीर्थङ्कर। (ती.भ.४) संतुट्ठ वि संतुष्ट] संतोषयुक्त संतोष को प्राप्त। (स.२०६) संतुट्ठो होहिणिच्चमेदम्हि। संतोस पुं [सन्तोष] तृप्ति, लोभ का अभाव, शान्ति, हर्ष। (निय.११५, शी.१९) संतोसेण य लोहं जयदि। For Private and Personal Use Only
SR No.020450
Book TitleKundakunda Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherDigambar Jain Sahitya Sanskriti Sanskaran Samiti
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size9 MB
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