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302 संख पुं न [शङ्ख] 1. शङ्ख, वाद्य विशेष, द्वीन्द्रिय जीव विशेष । (पंचा.११४, स.२२०, बो.३७) जइया स एव संखो। (स.२२२) 2.न [सांख्य] दर्शन विशेष, कपिलमुनि प्रणीत दर्शन, सांख्यमत। (स.११७, १२२) -उवदेस पुं [उपदेश] सांख्य शिक्षा, सांख्य विचार। एवं संखुवएसं। (स.३४०) -समअपुं [समय] सांख्यमत। पसज्जदे संखसमओ वा। (स.१२२) संखव सक [सं+क्षपय्] विनाश करना, क्षय करना। तम्हा ते संखइदव्वा । (प्रव.८४) संखइदव्व (वि.कृ.) संखा स्त्री [संख्या] गिनती, गणना। (पंचा.४६, प्रव.जे.४९) संखा विसया य होति ते बहुगा। (पंचा.४६) -अतीद वि [अतीत असंख्य, असंख्यात, गिनती से परे। संखातीदा तदो अणंता य । (प्रव.जे.४९) संखिज्ज/ खेज्ज वि [संख्यात] संख्यात,गिनने योग्य संख्या। (निय.३१,चा.२०) संखेज्जासंखेज्जाणंतपदेसा। (निय.३५.) संखेव पुं संक्षेप संक्षेप, स्वल्प, कम,थोड़ा। (प्रव.जे.४२, चा.४४,
भा.११८) संखेवेणेव वज्जरियं। (भा.११८) संखेवेण (तृ.ए.चा.४४,भा.११८) संखेवादो (प.ए.प्रव.जे.४२) संखेवि (अप.स.ए.भा.१२७) संग पुंन [सङ्ग] 1.आसक्ति, परिग्रह, विषयादिक के प्रति राग। (प्रव.चा.२४, चा.३०) पंचमसंगम्मि विरई य । (चा.३०) -चाअ पुं त्याग] परिग्रह का त्याग। पव्वज्ज संगचाए। (चा.१६) 2.संसर्ग, साथ,सङ्गति, सम्पर्क, सम्बन्ध।
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