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260 रयणत्तयजुत्तो। (मो.४४) -त्तयसंजुत्त वि [त्रयसयुक्त] रत्नत्रय से युक्त, रत्नत्रय से परिपूर्ण। (निय.७४, मो.३३) रयणत्तयसंजुत्ता। (निय.७४) रस पुं न [रस] 1.रस, जिह्वा का विषय। (पंचा.११४, स.६०, प्रव.५६,निय.२७,भा.२६,लिं.१२) एयरसवण्णगंधं। (पंचा.८१ जाणंति रसं फासं। (पंचा.११४) -अवेक्खा स्त्री [अपेक्षा] रस की अपेक्षा, रस की चाह। (प्रव.चा.२९)-गिदि स्त्री [गृद्धि] रस की गृद्धि, रस की आसक्ति। (लिं.१२) भोयणेसु रसगिद्धिं। 2. रस, रसायनादि,धातु विशेष। -विज्जजोय पुं [विद्यायोग] रस विद्या का योग, रस विद्या का सम्बन्ध। (भा.२६) रसविज्जजोयधारण। (भा.२६) रसण न [रसन] जिह्वा, जीभ। (स.३७८)-विसयमागय वि [विषयमागत] रसना इन्द्रिय के विषय को प्राप्त। (स.३७८) रसविसयमागयं तु रसं। रहिम/रहिद/रहिय वि रहित] परित्यक्त, वर्जित,हीन। (निय.६५,प्रव.५९,बो.४५,भा.१२२) समदा रहियस्स समणस्स। (निय.१२४) तह रायाणिलरहिओ। (भा.१२२) -कसाअ पुं [कषाय]कषायरहित। (प्रव.चा.२६) जुत्ताहारविहारो, रहिदकसाओ हवे समणो। (प्रव.चा.२६) रा अक [रन्ज्] अनुराग करना, आसक्त होना। (स.२७९)
राइज्जदि अण्णेहिं दु। राइज्जदि (व.प्र.ए.स.२७९) राइ वि [रागिन्] रागयुक्त, रागी। (मो.९३) राई देवं असंजयं वंदे
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