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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 254 निर्जरा करता है तथा वेदनीय एवं आयुकर्म को नष्ट कर नाम, गोत्र पर्याय का परित्याग करता है, उसको मोक्ष होता है। (पंचा.१५३) - उवाअ ' [उपाय मोक्ष का उपाय, मुक्ति का साधन। (निय.२,४) मग्गो मोक्खउवाओ। -काम पुकाम मोक्ष की अभिलाषा, मोक्ष की आकांक्षा। (स.१८) सो चेव दु मोक्खकामेण । (स.१८) -गय वि [गत] मोक्ष को प्राप्त हुआ। (निय.१३५) -पह पुं [पथिन्] मोक्षपथ, मुक्तिमार्ग। (निय.१३६, स.४११, ४१४) मोक्खपहे अप्पाणं । (निय.१३६) - मग्ग पुं [मार्ग] मोक्षमार्ग। (पंचा.१६०, स.२६७, द.११, सू.२०, बो.२०-२२, चा.३९) सणणाणचरित्ताणि मोक्खमग्गोत्ति। (पंचा.१६४) जो मुनि पाँच महाव्रतों से युक्त एवं तीन गुप्तियों सहित होता है,वही संयत है और वही निर्ग्रन्थ मोक्षमार्ग है। (सू.२०) -हेउ पुं हेतु] मोक्ष का कारण। (स.१५४) मोक्खहेउं अजाणंता। (स.१५४) मोण न [मौन] वाणी का संयम, मूकभाव। (निय.१५५, सू.२१, मो.२८) मोणं वा होइ वचिगुत्ति। (निय.६९) -बय पुंन व्रत मौनव्रत, वाणी के संयम की प्रतिज्ञा। (निय.१५५, मो.२८) मोणव्वएण जोई। (मो.२८) मोत्त वि [मूर्त रूपवाला, आकारवाला। (निय.३७) पोग्गलदव्वं मोत्तं। (निय.३७) मोत्त सक [मुच्] छोड़ना, त्यागना। (स.१५६, निय.३४, भा.१०६) मोत्तूण अणायारं। (निय.८५) मोत्तूण For Private and Personal Use Only
SR No.020450
Book TitleKundakunda Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherDigambar Jain Sahitya Sanskriti Sanskaran Samiti
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size9 MB
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