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217 होदि सुसीलं जं संसारं पवेसेदि। पब्बइद वि [प्रब्रजित] दीक्षित। (प्रव.चा.६७) पव्वज्ज सक [प्र+ब्र] दीक्षा लेना, संन्यास लेना। (चा.१६)
पव्वज्जा (वि. आ.म.ए.) पव्वज्जा स्त्री [प्रव्रज्या दीक्षा लेना,संन्यास लेना। (सू.२४,स.४०४) तासिं कह होइ पव्वज्जा। -दायग वि दायक दीक्षऽ देने वाला, दीक्षित करने वाला, दीक्षा गुरु। (प्रव.चा.१०) गुरु त्ति पव्वज्जदायगो होदि। -हीण वि [हीन प्रब्रज्या से रहित, दीक्षा से हीन। (लिं.१८) पब्वज्जहीणगहिणं| सभी परिग्रहों को छोड़ना प्रब्रज्या है। पव्वज्जा सव्वसंगपरिचत्ता। (बो.२४) पबद/पव्वय पुं न पिर्वत] गिरि, पहाड़, पर्वत। (निय.२२,
भा.२६) पब्बया स्त्री प्रब्रज्या दीक्षा। इत्थीसुण पव्वया भणिया। (सू.२५) पसंग पुं न [प्रसङ्ग] संसर्ग, सम्बन्ध, सन्दर्भ, प्रकरण।
(प्रव.८५,भा.२६) विसएसु य प्पसंगो। (प्रव.८५) पसंत वि प्रशान्त प्रकृष्ट शान्त, समता युक्त, मोह-राग-द्वेष
रहित। (प्रव.चा.७२) पसंसा स्त्री [प्रशंसा] प्रशंसा, स्तुति, प्रशस्ति, गुणगान। (प्रव.चा.४१, बो.४६)समसुहदुक्खो पसंसणिंदसमो।
(प्रव.चा.४१) पसंसाए (स.ए.मो.७२) पसंसणीअवि प्रशंसनीय] प्रशंसा योग्य, स्तुतियोग्य। (भा.१०८) पसज/पसज्ज अक [प्र+सज्] ठहरना, स्थित रहना, प्राप्त होना,
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